Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

View full book text
Previous | Next

Page 51
________________ चिद्काय की आराधना/49 'काय क्रिया रहितोऽहम्' पोषत तो दुख करे अति, शोषत सुख उपजावे। दुर्जन देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावे।। राचन योग स्वरूप न याको, विरचन योग सही है। यह तन पाय महा तप कीजै, यामें सार यही है।। मेरी चिद्काय निष्क्रिय स्वभावी है; मन, वचन और काय के परिस्पन्दन से रहित है। हिलना-डुलना, बोलना और विचार करना मेरा स्वभाव नहीं है। मन, वचन तथा काय से आत्मा भिन्न है। इसलिये मन, वचन और काय से ममता का त्याग करो। पुद्गल जीव की संसार यात्रा का निमित्त है। पुद्गल को विषय करने से ही जीव पुद्गल कर्म को आमंत्रित करता है। जीव स्वयं मोक्षमार्ग एवं मोक्ष का कारण है। एक बार भी जिसने निज जीवास्तिकाय का अनुभव किया, वह शीघ्र ही संसार समुद्र से पार हो जाता है। जीव स्वयं अपनी चिद्काय का ही आश्रय कर कर्मों से मुक्त होता है, सुखी होता है, बलवान होता है। __हे भव्य! तुम चैतन्य आत्मा हो। तुम्हारी चिद्काय परमानन्दमयी है। कायक्रिया को वश में करने के लिये अपने उपयोग को अपनी चिद्काय में, अपने ही परमात्मा में लगाने का अभ्यास करो। सांसारिक कार्यों को मन से मत करो; यदि करना ही पड़े तो काय और वचन से करो। सांसारिक कार्यो को वृथा नहीं लम्बाओ। उनसे शीघ्र निवृत्त होकर आत्मध्यान के द्वारा आत्महित करो। यह मनुष्य जीवन बहुत थोड़ी आयु वाला है, उसमें बुद्धि और बल हीन है। आगम समुद्र के समान है, अतः उसका पार कैसे पाया जा सकता है? द्वादशांग जिनवाणी का मूल एक आत्मानुभव है, जो अपूर्व कला है। एक आत्मानुभव करना ही सारभूत है और यही आत्मा के लिए हितकारी है, अन्य सब कोरी बाते हैं। इसलिए आत्मानुभव प्रकट करने के लिए अभ्यास करो।.

Loading...

Page Navigation
1 ... 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100