Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

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Page 22
________________ 20/चिद्काय की आराधना यदि चाहते हो मुक्त होना, चेतना मय शुद्ध जिन। अर बुद्ध केवल ज्ञान मय, निज आतमा को जान लो।। ज्यों मन रमे विषयानि में, यदि आत्मा में त्यों रमें। योगी कहें हे योगिजन!, तो शीघ्र जावे मोक्ष में।। ना जानते पहिचानते, निज आत्मा गहराई से। जिनवर कहे संसार सागर, पार वे होते नहीं। विरले पुरुष ही जानते, निज तत्त्व को विरले सुने। विरले करें निज ध्यान, अर विरले पुरुष धारण करे। हर पाप को सारा जगत ही, बोलता यह पाप है। पर कोई बिरला कुछ बुध कि, पुण्य भी तो पाप है।। लोह और सुवर्ण की बेड़ी में, अन्तर है नहीं। शुभ-अशुभ छोड़े ज्ञानिजन, दोनों में अन्तर है नहीं।। पुण्य से ही स्वर्ग, नर्क निवास होवे पाप से। पर मुक्ति रमणी प्राप्त होगी, आत्मा के ध्यान से।। है आतमा परमातमा, परमातमा ही आतमा। हे योगिजन! यह जानकर, कोई विकल्प करो नहीं।। सिद्धान्त का यह सार, माया छोड़ योगी जान लो। जिनदेव और शुद्धात्मा में, कोई अन्तर है नहीं।। जिनदेव जो मैं भी वही, इस भाँति मन निर्धान्त हो। है यही शिवमग योगिजन, ना मंत्र एवं तंत्र है।। अरहंत सिद्धाचार्य पाठक, साधु हैं परमेष्ठी पण। सब आत्मा ही है श्री, जिनदेव का निश्चय कथन।। यह आतमा ही विष्णु है, जिनेन्द्र शिव-शंकर वही। बुद्ध बह्मा सिद्ध ईश्वर है, वही भगवंत भी।। इन लक्षणों से विशद, लक्षित देव जो निर्देह है। कोई अन्तर है नहीं, जो देह-देवल में रहे।। भव दुःखों से भयभीत, योगीचन्द्र मुनिवर देव ने। ये एक मन से रचे दोहे, स्वयं को सम्बोधने।।

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