Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

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Page 44
________________ 42/चिकाय की आराधना 'स्पशर्नेन्द्रिय विषय व्यापार रहितोऽहम्' हे भव्य जीव ! स्पर्श इन्द्रिय का विषय ठंडा, गरम, कठोर, नरम, हल्का, भारी, रुक्ष, चिकना इनका अनुभव सुख नहीं, सुखाभास, दुःख है और इससे कर्मों का बंध होने से उसके उदय में भी दुःख है। आत्मा को पुद्गल का स्पर्श नहीं चाहिए। वह स्वयं ही शाश्वत उत्तम आनन्द का पुंज है। वह स्वयं अपना ही अनुभव करता हुआ शाश्वत उत्तम आनन्द को प्राप्त करता है। स्पर्शनेन्द्रिय के वशीभूत जीव अवश्य ही अन्य चारों इन्द्रियों के वशीभूत होता है। एक अब्रह्मसेवन का पाप करने वाला अवश्य ही अन्य चारों पाप करने लगता है। इसलिए स्पर्शनेन्द्रिय जन्य सुख से अपने आत्मा की रक्षा करना चाहिए और अभ्यन्तर में अपने चेतन शरीर (परमब्रह्म) को देखना चाहिए। पर अंग का स्पर्श सुख नहीं है, वह तो वेदना का प्रतीकार है। जैसे खुजली का रोगी अपनी खाज मिटाने के लिए नख आदि से खुजाता है, फिर भी खुजली शान्त नहीं होती, लहुलुहान होता है और दुःखी होता है, उस खुजाने के दुःख को थोड़ी देर के लिए खाज बन्द हो जाने के कारण सुख मानता है, उसीप्रकार अब्रह्म सेवन करने वाला मोहवश दुःख को सुख मानता है । यह संसार पुरुष के स्त्री के प्रति राग और स्त्री के पुरुष के प्रति राग के कारण ही चलता है। इस राग पर विजय प्राप्त करना अति कठिन है। इस राग पर जो विजय प्राप्त कर लेता है, वह संसार पर ही विजय प्राप्त कर लेता है और मुक्ति का स्वामी हो जाता है। 2 स्त्री को पुरुष के शरीर के स्पर्श एवं पुरुष को स्त्री के शरीर के स्पर्श से उसी प्रकार डरना चाहिए, जिस प्रकार हम सड़े मुर्दे के स्पर्श से डरते हैं। स्पर्शनेन्द्रिय के विषय सेवन की बहुलता से जीव एकेन्द्रिय में जाता है। स्पर्शनेन्द्रिय प्रमाण अपने क्षेत्र का अनुभव करने वाला जीव निश्चय ही स्पर्शनेन्द्रिय रहित अर्थात् अशरीरी हो जाता है।

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