Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

View full book text
Previous | Next

Page 40
________________ 38/चिद्काय की आराधना ‘मान कषाय रहितोऽहम्' मान महा विषरूप, करहि नीच गति जगत में। कोमल सदा अनूप, सुख पावै प्राणी सदा।। हे भव्य! मान कषाय जीव की स्वाभाविक परिणति नहीं है। मान कर्म का निमित्त पाकर जीव की पर्याय में मान उत्पन्न होता है। मान विभाव परिणति है, मार्दव (मृदुता) जीव का स्वभाव है। मार्दव में जीव अनन्त काल रह सकता है, किन्तु मान में अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रह सकता है। मार्दव आत्मा का शाश्वत गुण है, आत्मा का स्वभाव है। मान से आत्मा की शांति भंग होती है और अशुभ कर्मों का बंध होता है। मैं स्वभाव से मान परिणाम से शून्य हूँ। शाश्वत वस्तु मेरी दिव्यकाय ही है। निश्चय से क्षणिक मान परिणाम से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। ___ मेरे आत्मा में ज्ञान मद नहीं है। ज्ञान को पाकर अभिमान करना विभाव परिणति है, अतः ज्ञानमद का त्याग करो। हे भव्य! तुम्हारी चिद्काय क्षायिक ज्ञान स्वभावी है। क्षायोपशमिक ज्ञान तुम्हारा विभाव है। उसका अहंकार मत करो। केवलज्ञान के सामने तुम्हारा यह क्षायोपशमिक ज्ञान कुछ अंश मात्र भी नहीं है। सतत विचार करो कि मेरा आत्मा स्वभाव से क्षायोशमिक ज्ञान से रहित पुण्य का क्षय होते ही राजा भी रंक हो जाता है। हे भाई! सच्ची रत्नत्रय निधि को प्राप्त करो। शाश्वत निधि के स्वामी बनो। नश्वर सम्पत्ति की ओर दौड़ मत लगाओ। अपने भीतर छिपे खजाने को खोलो, उसको टटोलो। अहंकार कर्मबंध का कारण एवं आत्मानन्द का बाधक है। विभावों से दूर हटकर निज चिद्काय में रमण कर मान कषाय का अभाव करो। - निज चिद्काय के अनुभव के बिना शास्त्र ज्ञान और जिन प्रणीत क्रियाओं का पालन प्रायः जीव को मान उत्पन्न कर दुर्गति का कारण हो जाता है। इसलिये प्रथम ही अनुभव की कला को सीख लेना चाहिए, क्योंकि यह धर्म का मूल है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100