Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

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Page 82
________________ 80/चिद्काय की आराधना सपा का 'निरंजन स्वरूपोऽहम्' शुद्ध निरंजन आत्मा, तीन मलों से दूर। ज्यो ध्यावे नित ही इसे, करे भव सागर चूर।। हे भव्य! रत्नत्रय खड्ग को धारण कर त्रिमल शत्रुओं को नष्ट करने का पुरूषार्थ करो। तेरी दिव्यकाय पर कर्म शत्रुओं ने शासन कर रखा है, जिससे तुम्हारा जीवन दुःखमय हो रहा है। अब निज दिव्यकाय का ध्यान करके उसको कर्म शत्रुओं से मुक्त करो। ___ हे आत्मन्! निश्चय से तुम्हारा न कोई शत्रु है, न मित्र है, तुम निरंजननिर्विकार, निर्लेप हो। किन्तु पर्याय में तुम्हारा स्वरूप व्यक्त नहीं है। अतः अपना स्वरूप पर्याय में प्रगट करने का पुरुषार्थ करो। .. यह भगबान आत्मा अपने शुद्ध चैतन्य, ज्ञान, दर्शन स्वरूप से पूर्ण कलशवत भरितावस्था रूप है। जैसे डिब्बी में से अंजन के निकलते ही डिब्बी स्वच्छ है, उसी प्रकार यह चैतन्य आत्मा ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, राग, द्वेष, मोह, ख्याति, पूजादि भावकर्म और शरीरादि नोकर्म के दूर हटते ही निरंजन है, शुद्ध है, निर्मल है, विमल है, शुद्ध स्फटिक मणि सदृश प्रकाशमान तेजपुंज है। अरिहंत भगवान और अन्य सभी आत्माओं के स्वभाव में निश्चय से कोई भी अन्तर नहीं है। अरहंत का स्वरूप अंतिम शुद्ध दशा रूप है। इसलिये अरहंत का ज्ञान करने पर अपने शुद्ध स्वरूप का ज्ञान होता है। स्वभाव से सभी आत्मा अरहंत के समान हैं, परन्तु पर्याय में अन्तर है। सभी जीव अरहंत के समान हैं। अभव्य भी अलग नहीं हैं। अभव्य जीव भी शक्ति के अपेक्षा अरहंत के समान है, परन्तु व्यक्त होने की योग्यता नहीं है। आत्मा स्वभाव से पूर्ण है, किन्तु बाह्य पदार्थों को ही विषय करते रहने के कारण पर्याय में मलिनता है, अपूर्णता है। यदिजीव अंतरंग पदार्थ निज दिव्य काया को विषय करें तो शीघ्र ही निर्मल अरहंत दशा प्रगट होती है।

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