Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

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Page 52
________________ 50/चिद्काय की आराधना ‘भावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्म रहितोऽहम्' जारिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय, जीव तारिसा होंति। जरमरण जम्मम्मुक्का, अट्ठगुणालंकिया जेण।। जैसे सिद्ध परमात्मा हैं, वैसे ही भव में पड़े हुए जीव द्रव्यस्वभाव से सिद्ध परमात्मा हैं और कर्म नाश कर पर्याय में सिद्ध होते हैं। वे भी स्वभाव से जन्मजरा-मरण से रहित तथा आठ गुणों से अलंकृत हैं। शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से संसारी जीवों में और मुक्त जीवों में कुछ भी अन्तर नहीं है। शुद्ध निश्चय नय से मैं द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित हूँ। आत्मा व कर्म का अनादि काल से संयोग सम्बन्ध है। फिर भी जीव कर्म रूप नहीं होता व कर्म जीव रूप नहीं होता। दोनों भिन्न-भिन्न द्रव्य होने से दोनों में अत्यन्ताभाव है। __ अनादि से जीव को भावकर्म है, तथापि वह कर्माश्रित होने से जीव का स्वभाव नहीं है। द्रव्यकर्म का क्षय होते ही भावकर्म का हमेशा के लिये अभाव हो जाता है। द्रव्यकर्म के अभाव होने पर जीव में भावकर्म की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। अज्ञान अवस्था में यह जीव बहिर्मुख रहकर रागद्वेषमोह रूप भावकर्म के द्वारा द्रव्यकर्म को आमंत्रण देता है और द्रव्यकर्म के उदय में पुनः भावकर्म कर द्रव्यकर्म को बांधता है। इसप्रकार उसका संसार चक्र अनवरत रूप से चलता रहता है। अंतर्मुख होकर निज चिद्काय के अनुभव के द्वारा भावकर्म को रोक देना ही कर्मों के संवर, निर्जरा और मोक्ष का कारण है। हे चिद्काय प्रभु! दैवयोग से मैं स्वर्ग में होऊँ या नरक में होऊँ या इस मनुष्य लोक में होऊँ; विद्याधरों के स्थान में होऊँ या जिन मंदिर में होऊँ; मुझे आपके चरण-कमलों की भक्ति बनी रहे, जिससे कर्मों की उत्पत्ति नहीं होवे और पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय होकर शीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति हो।

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