Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

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Page 37
________________ चिद्काय की आराधना/35 'द्वेष परिणाम शून्योऽहम्' अयि! कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन्, अनुभवभव मूर्तेः पाववर्ती मुहूर्तम्। पृथगथ विलसन्तं स्वं समालोक्य येन, त्यजसि झगिति मूर्त्या, साकमेकत्वमोहम्।। हे भाई! तू किसी प्रकार, कष्ट पाकर अथवा मर-पचकर भी आत्मतत्त्व का कौतूहली होकर इस मूर्त द्रव्य का एक मुहूर्त के लिये पड़ोसी बनकर आत्मानुभव कर, जिससे मूर्त द्रव्य से भिन्न जिसका विलास है, ऐसे अपने आत्मा को सर्वद्रव्यों से भिन्न देखकर पुद्गल द्रव्य के साथ एकत्व रूप मोह को शीघ्र ही छोड़ देगा। चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से जो इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में प्रीति-अप्रीति रूप परिणाम होते हैं, उनका नाम राग-द्वेष है। मेरा आत्मा परमार्थ से राग-द्वेष परिणति से रहित है। इष्ट में प्रीति और अनिष्ट में द्वेष करना मेरा स्वभाव नहीं है, ये विभाव परिणाम हैं। हे भाई! राग करना हो तो मोक्ष प्रदायिनी शुद्धोपयोग से कर और द्वेष करना हो तो संसार प्रदायिनी अशुद्धोपयोग से कर। हे भाई! सम्यग्दृष्टि का हृदय अपने आत्मा के प्रति दया से भीगा हुआ है। इसलिये वह अपने आत्मा को कर्म से छुड़ाने के लिये अपनी चिद्काय का बारम्बार ध्यान करता है। जैसे किसी पुरुष का कीमती हीरा रेत के ढेर में गिर जाता है तो वह पुरुष उस रेत के एक-एक कण को अलग-अलग कर अपने हीरे को पा लेता है तथा जैसे मूर्तिकार पाषाण में से टाँची द्वारा एक-एक अनुपयोगी पाषाण को निकाल कर जिनबिम्ब का निर्माण कर लेता है, ठीक उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि समस्त विभाव परिणामों के जनक मोहकर्म को देहदेवालय में विराजमान अपने परम प्रभु का ध्यान कर नष्ट कर देता है। हे भाई! अपनी चिद्काय का आश्रय कर द्वेष परिणाम का अभाव करो।

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