Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

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Page 80
________________ 78/चिद्काय की आराधना ___'चिदानन्द स्वरूपोऽहम्' निराकर निर्भय सदा, निर्मल चेतन रूप। चिदानन्द ध्याऊँ सदा, मैं हूँ शिवालय भूप। जिसप्रकार सिद्ध भगवान व्यक्त रूप से चिदानन्द स्वरूप हैं, उसीप्रकार अभी अव्यक्त रूप से मैं चिदानन्द स्वरूप हूँ। हे भव्य! सभी विभाव परिणाम से भिन्न चिदानन्द तेरा स्वभाव है। उसी को प्राप्त करने का पुरूषार्थ कर। स्वसंवेदन गुण के अवलंबन से जो पुरूष, ख्याति, लाभ, पूजा व भोगों की इच्छा रूप निदान बंध आदि विभाव परिणामों से रहित होता हुआ शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न हुए परमानन्द सुख के द्वारा उसी में रंजित हुआ अपनी चिद्काय में अपने मन को संतृप्त कर तल्लीन रहता है, वही जीव चिदानन्द का प्रगट आस्वादन करता है। जब तक चार घातिया कर्मो का नाश नहीं होता, तब तक आत्मा का पूर्ण स्वरूप प्रगट नहीं होता। जब तक जीव अपने स्वरूप को पहिचान कर उसके अनुभव का पुरूषार्थ नहीं करते, तब तक दुःखी रहते है और संसार में भ्रमण करते है। सभी आत्मा शक्ति रूप से तो परिपूर्ण हैं, किन्तु पर्याय में व्यक्त दशा रूप में पूर्ण हों तो सुख प्रगट होता है, परमात्मा दशा प्रगट होती है। जीवों को अपनी बहिर्मुखता के कारण अपूर्ण दशा है, जिससे ही दुःख है। वह दुःख दूसरे के कारण नहीं है। वे धन-जन को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु चिदानन्दमयी अपनी ही दिव्यदेह को प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करते। . __ बहिर्मुखता जन्य अपने ही मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र के कारण अपनी पर्याय में दुःख है। उस दुःख को दूर करने के लिए अरहंत भगवान के द्रव्य, गुण, पर्याय का निर्णय कर निज जीवास्तिकाय में लीनता करनी चाहिए। निज जीवास्तिकाय को प्रतीति में लेने पर हमारा उपयोग उसमें एकाग्र होता है, जिससे मोह कर्म निराश्रित हो कर अवश्य क्षय को प्राप्त हो जाता है।

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