Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

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Page 38
________________ 36/चिद्काय की आराधना 'मोह परिणाम शून्योऽहम्' मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि। मोह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने। जो कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन माने।। यह जीव पर को अपना मान बैठा, निज को पहिचाना नहीं। अपनी दिव्यकाय से च्युत होना मोहकर्म का कार्य है। मेरा आत्मा स्वभाव से मोह परिणाम रहित है। अष्ट कर्मों में मोहनीय कर्म ही प्रधान है; क्योंकि संसार परिभ्रमण का मूल कारण यही है। यह दो प्रकार का है- दर्शनमोह और चारित्रमोह। दर्शनमोह सम्यक्त्व को व चारित्रमोह साम्यता रूप स्वाभाविक चारित्र को घातता है। हे आत्मन्! इन दोनों के उदय से तुम रागी-द्वेषी-मोही होकर स्वरूप से च्युत हो जाते हो। अतः मोह का नाश करने के लिये अपनी निर्मोह चिद्काय को भजो। जीव के द्रव्य-गुण-पर्याय के सम्बन्ध में होने वाला तत्त्व अप्रतिपत्ति लक्षण वाला मूढ़ भाव दर्शन मोह है। बाह्य पदार्थों में होने वाला राग-द्वेष चारित्र मोह है। हे जीव! दर्शनमोहनीय के उदय से उत्पन्न अविवेक रूप मोह परिणाम से तूने बाह्य पदार्थों को अपना मान रखा है। हे भव्य! तुम किस पर मोह करते हो? घर, पुत्र-पुत्री, स्त्री, माता-पिता पर। दूरदृष्टि से देखो तो पाओगे कि इस मोहजाल ने ही तुम्हारा पतन किया है। पुत्र से मोह करते हो। पुत्र सम शत्रु नहीं जग में। जिस पिता ने पाला था, माँ ने नौ माह पेट में रखा था, वही पुत्र शादी के बाद माता-पिता को छोड़कर पत्नी के मोह में फँसकर अपने परिवार के पोषण में पड़ जाता है। __ हे भव्य! अनादिकाल से सतत प्रवाहमान आज तक अनुभव किये गये मोह को अब तो छोड़ो; क्योंकि इस लोक में आत्मा वास्तव में किसी प्रकार भी परद्रव्यों के साथ एकत्व को प्राप्त नहीं होता। आचार्य कहते हैं कि हे भाई! मोह .. का अभाव करने के लिये निज चिद्काय का सतत अनुभव करो।

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