Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

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Page 53
________________ चिद्काय की आराधना/51 . ख्याति लाभ पूजा परिणाम शून्योऽहम्' जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविध विधि देह दाह। आत्म अनात्म के ज्ञान हीन, जे जे करनी तन करन छीन।। हे भव्यात्मन्! जड़ और चेतन के भेदविज्ञान से रहित होकर ख्याति, पूजा, लाभ की भावना से किया गया विविध प्रकार का तप मात्र शरीर को क्षीण करता है। यह आत्मा की शांति से भिन्न आकुलता का हेतु है, संसार का कारण है। . हे भव्यात्मन्! तुम्हें आत्मकल्याण की इच्छा है तो ख्याति, लाभ, पूजा की इच्छा का त्याग करो। इनसे इसी प्रकार डरो जैसे नरक वास से डरते हो। ये स्वरूप ध्यान में बाधक हैं। अन्तरात्माओं को पुण्य के उदय से ये सहज ही मिलते हैं, लेकिन वे इनसे भयभीत रहते हैं। राग परिणति को छोड़कर अपने उपयोग को अपने आत्मस्वभाव में अर्थात् अपनी चिद्काया में लगाओ। जन्म-मरण से रहित होने के लिये सदा अपनी चिदकाय का ध्यान करो। सदा ऐसा चिन्तन करो कि मेरा क्षेत्र देहप्रमाण पाँव से लेकर मस्तक तक है। मेरी चिद्काय ही मेरा धन है, संपत्ति है, प्रभु है, इसके बाहर मेरा धन नहीं है। मेरी वस्तु इतनी ही है। इस पर ही मेरा अधिकार है। बाहर तो सब कर्मों का खेल है, मायाजाल है। मैं अपने स्वरूप से च्युत होऊँगा तो महान हिंसा, चोरी, कुशील, परिग्रह; इन पाँचों पापों का दोष लगेगा। इसलिये मुझे सदा अपनी ही चिद्काया के ध्यान का ही अभ्यास करना चाहिए। ___ हे आत्मन्। नेत्र बंद कर अंतर्दृष्टि करो और अपनी चिद्काया को अनुभव में लो। अपने उपयोग को अपने विस्तार पर ही लगाने का अभ्यास करो। अभ्यास सिद्ध हो जाने पर तुम पुण्य-पाप से रहित वीतराग सर्वज्ञ प्रभु स्वयमेव बन जाओगे। मोक्षार्थी जीव अपनी चिकाय का ध्यान कर शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।

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