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28/चिद्काय की आराधना
धर्म का आरम्भ करने की विधि यह है कि पहले विकल्पात्मक क्षयोपशम ज्ञान में निज शुद्धात्म तत्त्व का स्वरूप समझें, सम्यक् निर्णय करें, पश्चात् समस्त पदार्थों से अपने उपयोग हटाकर अपनी चिद्काय के सन्मुख करें और उसी में ही तन्मय हो जायें। यह आत्म तन्मयता ही मुक्ति का उपाय है। यही धर्म है। इससे ही कर्मों की निर्जरा होकर हमें मोक्ष की प्राप्त होगी।
अचिंत्यशक्तिः स्वयमेव देवश्चिन्मात्र चिंतामणिरेष यस्मात्। सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते, ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण।।
यह चिन्मूर्ति आत्मा स्वयं ही अनन्त शक्ति का धारक देव है और स्वयं ही चिंतामणि होने से वांछित कार्य की सिद्धि करने वाला भगवान है।
उक्त समयसार कलश 144 में अचिन्त्य शक्ति वाला देव, चिन्मात्र चिन्तामणि शब्दों से भगवान चिद्काय की महिमा की है। निज भगवान चिद्काय का ही अनुभव करने वाले जीवों को पर पदार्थों के परिग्रह से कोई प्रयोजन नहीं रहता। निज भगवान चिद्काय ही परमेश्वर है। इसकी आराधना करने से परमपद मोक्ष मिलता है।
निज भगवान चिद्काय में लीन होना, उसी से संतुष्ट होना और उसी से तृप्त होना परम ध्यान है। इससे वर्तमान में आनन्द का अनुभव होता है और थोड़े ही समय में ही अरिहंत पद की प्राप्ति होती है। __परम शान्ति का अनुभव करने के लिए हमें अपने उपयोग को निज जीवास्तिकाय में लीन करना चाहिए। निज जीवास्तिकाय की अचिन्त्य सामर्थ्य पर विश्वास करके उपयोग को उसमें लीन करना चाहिए। चिद्काय ही अपना आराध्य देव है, उसी का निरन्तर आराधना करना चाहिए। निज जीवास्तिकाय में उपयोग लीन करने से भीतर सुख का महासागर लहराने लगता है। ... एक अपनी चिद्काय में ही हमारा सुख है। इसलिए अपनी चिद्काय से ही सुख प्राप्त करने की भावना हमेशा भाना चाहिए। अपनी चिद्देह का ही सदा अनुभव करना, वेदन करना, ध्यान करना हमारा स्वभाव है, वही स्वर्ग और