Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

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Page 92
________________ 90/चिद्काय की आराधना . अध्यात्मसार स्वरूपोऽहम् आत्माश्रित अध्यात्म सार को, स्व समय नाम से पहिचानो। रत्नत्रय आराधन से तुम, उसकी प्राप्ति को मानो।। साधन के बिना साध्य न होवे, सिद्धांत यही उर में लाओ। व्यवहार रत्नत्रय सोधन लेकर, निश्चय सिद्धि कर डालो।। निश्चय से मैं अध्यात्मसार स्वरूप हूँ। हे आत्मन्! जब यह जीव सर्व पदार्थों के प्रकाशन में समर्थ ऐसे केवलज्ञान को उत्पन्न करने वाली भेदज्ञान की ज्योति के उदय होने से सब पर द्रव्यों से पृथक् होकर निज चिद्काय से एक रूप होकर प्रवृत्ति करता है, तब दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थिर होने से स्वसमय है, अध्यात्मसार है। जो मन-इन्द्रिय द्वार से पुद्गल द्रव्य को ग्रहण करता है, वह परसमय है। । अनन्त काल से अनन्त जीव संसार में भ्रमण कर रहे हैं और अनन्त काल से अनन्त जीव अपने स्वरूप की, अपनी चिद्काय की प्रतीति और अनुभूति कर मुक्ति को प्राप्त हो चुके हैं। इस जीव ने धन-जन का पक्ष अनादि से ग्रहण किया है, परन्तु सिद्ध परमात्मा समान अपने चिन्तन का पक्ष कभी भी ग्रहण नहीं किया है। इसलिए उसका संसार में परिभ्रमण हो रहा है। जो दुर्धर तप करता है और सर्वशास्त्रों को जानता है, किन्तु निज चिद्काय के ध्यान से रहित है, वह अध्यात्म के सार को प्राप्त नहीं करता है। जब तक उपयोग अंतर्मुख नहीं होगा, तब तक निरंतर रागादि उत्पन्न होंगे, कर्मों का आस्रव-बंध चालू रहेगा। इसलिये उपयोग को अंतर्मुख कर अपनी चिद्काय का अनुभव करने का अभ्यास करना चाहिए। इसी से रागादि उत्पन्न नहीं होंगे, कर्मों का क्षय होकर निर्वाण की प्राप्ति होगी।

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