Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

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Page 66
________________ 64/चिकाय की आराधना ‘चैतन्य कल्याणवृक्ष स्वरूपोऽहम्' कर्मवृक्ष की छाया में तू पथिक, अब तक भटक रहा । जितना उसके पास गया तू, उतना ही उससे अटक रहा ।। तेरा चैतन्य कल्याण वृक्ष है, इस की छाया को गह ले । अनन्त सुख की छाया पाकर, मुक्ति महल में वास करे ।। जिसका प्रीति-अप्रीति से रहित शाश्वत स्थान है, जो सर्व प्रकार के आत्मिक सुख से निर्मित अमूर्तिक है, जो चैतन्य रूप अमृत फलों से पूर्ण लदा है, ऐसा चैतन्य कल्याण वृक्ष मेरा स्वरूप है। मेरी स्वानुभवगोचर चिकाय ही शाश्वत चैतन्य कल्याणवृक्ष है। मैंने आज तक ऐसे चैतन्य कल्याणवृक्ष की शरण नहीं ली। आज मैं चैतन्य कल्याण वृक्ष की गहन छाया का आश्रय लेता हूँ और बाह्य पदार्थों के आश्रयरूप कर्मवृक्ष की छाया का त्याग करता हूँ। कर्मवृक्ष की छाया अनन्त संसार के दुःखों का हेतु है, मुक्ति महल की अर्गला है, किन्तु मेरे चैतन्य वृक्ष, चिट्ठाय की छाया अनन्त सुख -शांति को देने वाली है तथा चिरकाल भ्रमण की थकान को दूर करने वाली है। हे भव्य ! ऐसी अपनी चिकाय में ही विश्राम करो। हे आत्मन्! इस जीव ने अनादिकाल से कर्मवृक्ष की छाया को पकड़ कर रखा। उन्हीं कर्मों के अच्छे-बुरे विपाक पाकर हर्ष-विषाद करता रहा । कर्मवृक्ष सामान्य से एक और द्रव्य कर्म, नोकर्म, भावकर्म रूप से तीन प्रकार के हैं तथा मूल कर्मों की अपेक्षा आठ प्रकार के व उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा 148 प्रकार के हैं। इन कर्मों के बीच भी आत्मा अपने शाश्वत गुणों की अपेक्षा अनन्त शक्तिशाली है। संसार के दुःखों से छूटने के लिए उसी की चाह करो, उसी की प्राप्ति करो, उसी का विचार करो । मैं अब पुद्गलद्रव्य के पीछे एक समय भी नष्ट नहीं करता हुआ चैतन्य कल्याण तरु की, निज जीवास्तिकाय की गहरी छाया में अनन्त काल के लिये विश्राम लेता हूँ।

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