Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

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Page 78
________________ 76/चिद्काय की आराधना 'परमानन्द स्वरूपोऽहम्' | परम आनन्द सहित आतम, शुद्ध शांत अनूप है। दर्शन पाता वह नहीं, जो ध्यान हीन मनुष्य है।। हे भव्य! तेरा आत्मा परमानन्द स्वरूप है। तेरा परमानन्द अभी तक व्यक्त नहीं हो पाया, क्योंकि अनादि काल से तुमने मिथ्यात्व-रागादि उन्मार्ग को छोड कर एक बार भी अपने उपयोग को अपनी चिद्काय में लगाने का प्रयत्न नहीं किया। तुम्हारी दृष्टि सदा बहिर्मुख ही रही, कभी निज जीवास्तिकाय का अनुभव कर अन्तरामा नहीं बने, बहिरात्मा ही बने रहे। उपयोग सदा बाहर ही रहा। इसी कारण तुम अभी तक परमानन्द स्वरूप अपनी दिव्य देह का आनन्द व्यक्त नहीं कर पाये। .. तीन भुवन में अनन्त जीव हैं। वे सब सुख चाहते हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि सुख उनकी ही देह के भीतर स्थित निज दिव्य देह में है और अंतर्दृष्टि करने पर अनुभव में आता है। वे बहिर्मुख रह कर बाह्य पदार्थो से ही विषय सुख लेने का प्रयत्न करते हैं। इसलिये वे सुख से सदा वंचित रहते हैं। हे भाई! इस मनुष्य देह की आयु पूर्ण होने पर यदि तू अपनी दिव्य काय की रूचि अपने साथ में नहीं ले गया तो तूने इस मानव जीवन में अपना हित नहीं किया। यह दुर्लभ मनुष्य जीवन व्यर्थ ही विषयों में गंवा दिया। . यदि जीवन में परमात्मस्वरूप निज जीवास्तिकाय का अनुभव किया तो उसकी रूचि अपने साथ में ले जायेगा, जिससे कुछ ही भवों में मुक्ति को प्राप्त कर लेगा। देहरूपी देवालय में परमानन्दमयी आत्मा है, वह निःसंदेह अनादि अनन्त परमात्मा है। परमानन्द को प्राप्त करने के लिये अब मैं मिथ्यात्व, रागादि विकल्प जाल रूप उन्मार्ग को छोड़कर अपने उपयोग को अपनी चिद्काया में लगाता हूँ।

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