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पारिभाषिकः । (प्रत्ययग्रहणे०) इस २३ यो परिभाषासे ( प्यङः संप्रसारणं पुत्र पत्या तत्पुरुष) यहां तत्पुरुष में पुत्र ) और (पति) उत्तरपदों के परे (ध्यड़ा)को संप्रसारण कहा है तो (व्यङ)का जो आदि वा ध्यङन्त को कार्य होगा। इस से (कारोषगन्ध्यायाः पुत्रः कारोषगन्धी पुत्रः, कारोषगन्धीपतिः, वाराहीपुत्रः, वाराहीपतिः ) इत्यादि प्रयोग तो सिद्ध हो जावेंगे परन्तु (परमकारोषगन्धोपुत्रः, परमकारोषगन्धीपतिः) इत्यादि प्रयोग नहीं सिद्ध होंगे क्योंकि जिस ( कारोषगन्धि ) शब्द से (व्यङ) प्रत्यय विहित है तो वही जिस के आदि में हो ऐसे (प्यङ्) का ग्रहण हो सकता है और परम के सहित ग्रहण नहीं हो सकता इसलिये यह परिभाषा है । २६-अस्त्रीप्रत्ययेनानुपसर्जनेन ॥ अ०६।१।१३॥
(तदादिग्रहणपरिभाषा) स्त्रीप्रत्यय और उपसर्जन को छोड़ के प्रवृत्त होने इस से सामान्य स्त्रीप्रत्य य ( परमकारोषगन्धोपुत्रः ) इत्यादि में तदादि ग्रहण के दोष से संप्रसारण का निषेध नहीं होता और कारोषगन्ध्य मतिक्रान्तोऽतिकारी षगन्ध्यः,अतिकारोषगन्ध्यस्य पुत्रः अतिकारोषगन्ध्यपुत्रः)यहां व्यङन्त स्त्रीप्रत्यय उपसर्जन अर्थात् स्वार्थ में अप्रधान है इसलिये संप्रसारण नहीं होता इत्यादि॥२६॥ (सुप्तिङन्तं पदम् )स सूत्र में अन्त ग्रहण व्यर्थ है क्योंकि जो (सुपतिङन्तंपदम) ऐसा सूत्र करते तो तदन्त विधिपरिभाषा से अन्त की उपलब्धि से (सुबन्त, तिङन्त) की पदसंज्ञा हो ही जाती फिर अन्तग्रहण व्यर्थ हो कर इस परिभाषा का जापक है। २७-संज्ञाविधौ प्रत्ययग्रहणे तदन्तविधिन भवति ॥ अ० १॥
४।१४॥ प्रत्ययों की संज्ञा करने में तदन्तविधि नहीं होती। इस से अन्तग्रहण सार्थक होना तो स्वार्थ में चरितार्थ है और अन्यत्र फल यह है कि ( तरतमयौ पः) यहां (तरप तमप) प्रत्य यान्त को (घ) संज्ञा नहीं होती जो तरप प्रत्ययान्त की (घ) संज्ञा होजावे तो ( कुमारोगौरितरा) यहां घसंज्ञक के परे कुमारी शब्द को हव हो नावे सा रस परिभाषा से नहीं होता । और (कत्तद्धितसमासाय) यहाँ कत्तवित प्रत्य यों में अन्तग्रहण नहीं किया और प्रातिपदिकसंज्ञा के होने से तदन्तविधि भी नहीं हो सकती इसलिये क्वत्तद्धित में अर्थवान की अनुवृत्ति करने से कदन्त और तद्धितान्त हो अथवान् होते हैं केवल ( कत् , तद्धित ) महीं क्योंकि ( न केवला प्रक्क तिःप्रयोक्तव्या न च केवलप्रत्ययः) इस महाभाष्य के
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