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:: श्रीमत् स्वयंप्रमसूरि:
[ ३ में समधिपूर्वक स्वर्ग को सिधारे। तत्पश्चात् आपश्री के पट्ट पर आपश्री के महान् योग्य शिष्य श्री रत्नचूड़ विराजमान हुये और वे रत्नप्रभसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुये ।
श्रीमद् रत्नप्रभसूरि ने भी अपने गुरु के कार्य को अक्षुण्ण गतिशील रक्खा । ओसियानगरी में आपश्री ने 'ओसवालश्रावकवर्ग' की उत्पत्ति करके अपने गुरु की पगडण्डियों पर श्रद्धापूर्वक चलने और गुरुकार्य को पूर्णता देने का जो शिष्य का परम कर्तव्य होता है वह सिद्ध कर बतलाया । जैनसमाज श्रीमत् स्वयंप्रभसूरि और रत्नप्रभसरि के जितने भी कीर्तन और गान करें, उतना ही न्यून है । ये ही प्रथम दो आचार्य हैं, जिन्होंने आज के जैन समाज के पूर्वजों को जैनधर्म की कुलमर्यादापद्धति पर दीक्षा दी थी। अगर ये इस प्रकार दीक्षा नहीं देते तो बहुत संभव है, जैनधर्म का आज जैसा हम वैश्यकुल आधार लिये हुये हैं, वैसा हमारा वह आधार नहीं होता और नहीं हुआ होता और हम किसी अन्य ज्ञाति अथवा समाज में ही होते और हम कितने हिंशक अथवा मांश और मदिरा का सेवन करने वाले होते, यह हम अन्यमतावलम्बी ठुलों को देखकर अनुमान लगा सकते हैं। ता. १-६-५२.
लेखकभीलवाड़ा (राजस्थान) ।
दौलतसिंह लोढ़ा 'अरविंद' बी० ए०
विशेष प्रमाणों के लिये 'प्राग्वाटश्रावक-वर्ग की उत्पत्ति प्रकरण को देखे । १-उपकेशगच्छ पट्टावली (वि० सं०१३९३ में श्रीमद् कक्कसरिविरचित) २-जनजातिमहोदय ३-पार्श्वनाथ परम्परा भा०१.
ज्ञानसुन्दरजी द्वारा