Book Title: Pragvat Itihas Part 01 Author(s): Daulatsinh Lodha Publisher: Pragvat Itihas Prakashak Samiti View full book textPage 9
________________ :: प्राग्वाट-इतिहास:: आपने यह अनुमान लगा लिया था कि जैनधर्म को जब तक लोग कुलमर्यादा-पद्धति से स्वीकार नहीं करें, तब तक सारे प्रयत्न निष्फल ही रहेंगे। उस समय अर्बुदाचल-प्रदेश में नवीन क्रांति हो रही थी। वहाँ यज्ञ हवनादि का बड़ा जोर था । अब तक विरले ही जैनाचार्यों ने उस प्रदेश में विहार किया था । आपने अपने ५०० शिष्यों के सहित अर्बुदगिरि की ओर प्रयाण किया। मार्ग में अनेक तीर्थों के दर्शन-स्पर्शन करते हुये आपश्री अर्बुदगिरितीर्थ पर पधारे। तीर्थपति के दर्शन करके आपश्री ने अभिनव वसी हुई श्रीमालपुर नामक नगरी की ओर प्रयाण किया। श्रापश्री को अर्बुदतीर्थ पर ही ज्ञात हो गया था कि श्रीमालपुर में राजा जयसेन एक बड़े भारी यज्ञ का आयोजन कर रहे हैं। आपश्री श्रीमालपुर में पहुँच कर राजसभा में पधारे और यज्ञ कराने वाले ब्राह्मणपंडितों से वाद किया, जिसमें आपश्री जयी हुये और 'अहिंसा-परमोधर्म' का झण्डा लहराया। आपश्री की ओजस्वी देशना श्रवण करके राजा जयसेन अत्यन्त ही मुग्ध हुआ और उसने श्रीमालपुर में बसने वाले १०००० सहस्र ब्राह्मण एवं क्षत्री कुलों के स्त्री-परुषों के साथ में कुलमर्यादापद्धति से जैनधर्म अंगीकृत किया। जैनसमाज की स्थापना का यह दिन प्रथम बीजारोपण का था—ऐसा समझना चाहिए । ___श्रीमालपुर में जो जैन बने थे, उनमें से श्रीमालपुर के पूर्व में बसने वाले कुल 'प्राग्वाट' नाम से और श्रीमन्तजन 'श्रीमाल' तथा उत्कट धनवाले 'धनोत्कटा' नाम से प्रसिद्ध हये। श्रीमालपर से आपश्री अपने शिष्यसमुदाय के सहित विहार करके अनुक्रम से अवलीपर्वत-प्रदेश की पाटनगरी पद्मावती में पधारे । पद्मावती का राजा पद्मसेन कट्टर वेदमतानुयायी था। वह भी बड़े भारी यज्ञ का आयोजन कर रहा था । समस्त पाटनगर यज्ञ के आयोजन में लगा हुआ था और विविध प्रकार की तैयारियां की जा रही थीं। सीधे आपश्री राजा पद्मसेन की राजसभा में पधारे । ब्राह्मण-पंडितों और आपश्री में यज्ञ और हवन के विषय पर पड़ा भारी वाद हुआ। वाद में आचार्यश्री विजयी हुये । आपश्री की सारगर्भित देशना एवं आपश्री के दयामय अहिंसासिद्धान्त से राजा पद्मसेन अत्यन्त ही प्रभावित हुआ और वह जैनधर्म अंगीकार करने पर सन्नद्ध हुआ । आचार्यश्री ने पद्मावती नगरी के ४५००० पैंतालीस सहस्र ब्राह्मण-क्षत्रीकुलोत्पन्न पुरुष एवं स्त्रियों के साथ में राजा पद्मसेन को कुलमर्यादापद्धति पर जैन-धर्म की दीक्षा दी। पद्मावती नगरी अवलीपर्वत के पूर्वभाग की जिसको पूर्वपाट भी कहा जाता है पाटनगरी थी। श्रीमालपुर के पूर्व भाग अर्थात् पूर्वपाट में बसने वाले जैनधर्म स्वीकार करने वाले कुलों को जिस प्रकार प्राग्वाट नाम दिया था, उसी दृष्टि को ध्यान में रख कर पूर्वपाट की राजनगरी पद्मावती में जैनधर्म स्वीकार करने वाले कुलों को भी प्राग्वाट नाम ही दिया। राजा की अधीश्वरता के कारण और प्राग्वाट श्रावकवर्ग की प्रभावशीलता के कारण भिन्नमाल और पद्मावती के संयुक्त प्रदेश का नाम 'प्राग्वाट' ही पड़ गया। इस प्रकार आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने श्रीमालश्रावकवर्ग की एवं प्राग्वाटश्रावकवर्ग की उत्पत्ति करके जो स्थायी जैनसमाज का निर्माण किया वह कार्य महान् कल्याणकारी एवं गौरव की ही एक मात्र वस्तु नहीं, वरन् सच्चे शब्दों के अर्थ में वह भगवान् महावीर के शासन की दृढ़ भूमि निर्माण करने का महा स्तुत्य कर्म था । जीवनभर आपश्री इस ही प्रकार हिंसावाद के प्रति क्रान्ति करते रहे और जैनधर्म का प्रचार करते रहे। अंत में आपश्री ५१ वर्षे पर्यन्त धर्मप्रचार करते हुये श्री शत्रुजयतीर्थ पर अनशन करके चैत्र शुक्ला प्रतिपदा वी० सं० ५७Page Navigation
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