Book Title: Digambar Jain Muni Swarup Tatha Aahardan Vidhi Author(s): Jiyalal Jain Publisher: Jiyalal Jain View full book textPage 7
________________ दो शब्द श्रावक के षट् आवश्यक कर्मों में दान देना पुण्य कार्य है । दान भी चार प्रकार का होता है : अभयदान, ज्ञानदान, औषधिदान और प्राहारदान । दाता, द्रव्य और पात्र को अपेक्षा से दान की प्रकर्षता होती है । सत्पात्र को दान देने की अचिन्त्य महिमा है । देखो भ० ऋषभदेव को प्रथम पारणा कराने वाले राजा श्रेयांश भगवान से पहले ही मोक्षगामी हुए। शिक्षावतों में अतिथि संविभाग अन्तिम व्रत है। अतिथि मुनिराज को आहार कराना महान पुण्यकार्य है ही भोर महाभाग्यवान ही इसे प्राप्त करते हैं । किन्तु खेद का विषय है कि सम्प्रति युग में न तो तोथंकर जैसे सत्पात्र के दर्शन ही होते हैं और न हो राजा श्रेयांस सदृश दाता ही देखने में आते हैं। शुद्ध द्रव्यों की सुलभता भी सुगम नहीं है। ऐसे विषम समय में कभी किसी मुनि, आर्यका, ऐलक, क्षुल्लक आदि का समागम हो जाये तो यह कठिनाई होती है कि किस प्रकार आहार दिया जाय ? कहना न होगा कि प्रस्तुत पुस्तक में इसी समस्या का समा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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