Book Title: Digambar Jain Muni Swarup Tatha Aahardan Vidhi
Author(s): Jiyalal Jain
Publisher: Jiyalal Jain

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Page 10
________________ यह अपने निज स्वभाव की खोज का प्रयत्न करता है, और धर्माचरण के सन्मुख होता है । श्रागम में श्राचार्यों ने धर्म के दो भेद किये हैं, एक मुद्धि धर्म, दूसरा गृहस्थ धर्म, यह व्यवहार रूप धर्म हैं इन पर चल कर हीं यह जीव अपने स्वभाव में लीन हो जाता है तब इसे निश्चय धर्म की प्राप्ति हो जाती है । सर्व प्रथम हमें व्यवहार धर्म पर ही चलना पड़ेगा : प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान लेखक ने मुनि धर्म, और गृहस्थ धर्म का संक्षेप में स्वरूप समझाया है और खास तौर पर मुनि स्वरूप और आहार दान विधि का प्रतिपादन किया है । मोक्ष प्राप्ति के लिए जो भव्यात्मा सर्व परिगृह का त्याग कर इन्द्रिय विषयों का दमन कर पूर्ण संयमी बनकर ज्ञान, ध्यान, तप में लीन हो जाता है उसे ही सद्गुरु की संज्ञा दी गई है, उसी वन्दनीय पुरुष पुङ्गव को " मुनिराज" कहा जाता है। ऐसे रत्नत्रय विभूषित महान तपस्वी पुरुष के शरीर स्थिति रक्षरणार्थ आहार जल देना ही आहारदान है । यह अहारदान सद्गृस्थ के लिये नित्य देने योग्य है । आगम में सत्पात्र दान का फल भोगभूमि सुख, स्वर्गादिक सुख, अन्त में शिव सुख तक प्राप्त होना बतलाया है । सत्पात्र दान से परिणामों में निर्मलता आती है और निर्मलता आने से कषाय मन्द हो जाते हैं, कषायम'द होने से जीव अनन्त पुण्य संचय करता है, वह पुण्य बन्ध ही जीव को नाना प्रकार सुख का दाता है । गृहस्थ अवस्था में रहते हुए जिनका हृदय उदार होता है और मन, वचन, काय की क्रिया सरल होती है, और जो जिनदेव, जिनागम, जैन गुरुनों में श्रद्धा रखता है, वह निरभिमानीं पुरुष श्रावक कहलाता है। श्रावक को देव पूजा, गुरु सेवा आदि षटकर्म प्रतिदिन करना आवश्यक है । इस पुस्तक में सुगुरु स्व. रूप एवं सत्पात्र दान विधि का वर्णन किया । लेखक श्री पं० जियालाल जी जैन वैद्य एक धार्मिक पुरुष हैं, आपके द्वारा एक पुस्तक " जैन पूजन विधि" नाम की पहले प्रकाशित हो चुकी है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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