Book Title: Digambar Jain Muni Swarup Tatha Aahardan Vidhi
Author(s): Jiyalal Jain
Publisher: Jiyalal Jain

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Page 40
________________ कुरूप प्रतीत होता है उसी प्रकार इनको न पालने पर धर्म अपूर्ण रहता है / कहा है- “धर्म एव हतोहन्ति" "धर्मोरक्षाति रक्षितः" अर्थात धर्म क्रियाओं को न पालनसे जीवन दुखी रहता है और धर्म की रक्षा से जीवन सुखी रहता है। __ माता, पिता, विद्या-गुरु और आचार्य को गुरु कहते हैं। इनको प्रणाम करना, इनकी आज्ञा मानना तथा सेवा भक्ति को गुरु पूजा कहते हैं / अथवा जो सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा तप आदि आत्मिक गुणों में बड़े हो पूज्य हो उनको गुण गुरु कहते हैं। ऐसे महापुरुषों को सेवा भक्ति करना गुण गुरुओं को पूजा कहलाती है / उक्त गुरुपों तथा गुण गुरुत्रों की भक्ति पूजा करने वाला गृहस्थ धर्म का अधिकारी है। ____ अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि ब्रतों को पालने वाले त्यागो व्रती, साधु आदि तथा शास्त्र के ज्ञाता विद्वानों एवं माता, पिता आदि हितैषियों की सेवा भक्ति करना विनय कहलाती है। चारित्रवानों की विनय करने से पुण्य की प्राप्ति,विद्वानोंकी विनय करने से शास्त्रों के रहस्य का ज्ञान और माता, पिता आदि हितेषियों की विनय करने से सज्जनता, कुलीनता का परिचय और सब विनय करने का फल है / जो श्रावक प्रतिदिन भगवान अर्हन्त का पूजन करता है। और द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव की योग्यतानुकूल मुनियों को आहार दान करता है, वह नियम से सम्यग्दृष्टि श्रावक कहा जाता है और वह श्रावक धर्म मार्ग लीन होने से अतुल पुण्य बन्ध करता है / पुण्य के फल से नरेन्द्र, खगेन्द्र, सुरेन्द्र आदि सुख प्राप्त करता है पुनः मोक्ष मार्ग में रत रहता हुआ परम्परा से मोक्ष प्राप्त कर लेता है। -26 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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