Book Title: Digambar Jain Muni Swarup Tatha Aahardan Vidhi
Author(s): Jiyalal Jain
Publisher: Jiyalal Jain

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Page 15
________________ श्री मुनिस्वरूप तथा आहार दान विधि सच्चे गुरु जिनमें पांचों इन्द्रियों के विषयों के भोगने की इच्छा नहीं जो सर्व प्रकार के प्रारम्भों से रहित हैं जो लगोटी तक का भी परिग्रह न रख कर दिगम्बर मुद्रा के धारक हैं जो धर्म शास्त्रों को पढ़ने पढ़ाने व धर्म उपदेश देने तथा धर्म-ध्यान में ही मग्न रहते हैं । जो कर्मों की निर्जरा के लिये यथा शक्ति और निष्कपट उपवासादि रूप बाह्य तप और प्रायश्चितादि रूप अन्तरङ्ग तप को धारण करते हैं। समस्त प्राणियों का हित करने वाले शान्त स्वभावी जिनके कषायों की मन्दता है, अपने शरीर से भी ममत्व न रखने वाले और बाह्य धन धान्य वस्त्र आदि परिग्रह के पूर्ण त्यागी, यथार्थ आगम के अनुकूल भाषण करने वाले और प्रात्मीक ज्ञान और ध्यान में सर्वदा लीन रहने वाले ही यति मुनि अथवा सच्चे साधु (गुरु) कहे जाते हैं। यह अजाचोक वृत्ति के धारी, निर्विकारी, निर्लोभी, निष्कषाय होते हैं । शत्र, मित्र, कांच, कञ्चन, में समान विचारधारी ही सच्चे गुरु हैं। साधु के २८ मूल गुण आगम में साधु के लक्षरण इस प्रकार कहे हैं : जो पञ्चेन्द्रियों के विषयों से विरक्त प्रारम्भ परिग्रह रहित और ज्ञान ध्यान तप में लवलीन हो, वही साधु है । इस सिद्धि के लिये साधु को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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