Book Title: Digambar Jain Muni Swarup Tatha Aahardan Vidhi
Author(s): Jiyalal Jain
Publisher: Jiyalal Jain

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Page 16
________________ निम्न २८ मूल गुण धारण करने पड़ते रहे हैं -पंच महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियों का दमन, ___सामायिकादि षटकर्म, केश लौच, अचेलक्य, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तघर्षेण, खड़े खड़े भोजन और एक भुक्ति-इन मूल गुणों को भलीभांति पालने से आत्मा के ८४ लाख उत्तर गुरगों की उत्पत्ति होती है । मुनि २२ परीषहों के विजयी होते हैं। क्षुधा तृषा, शीत, उष्ण, दशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोष, वध, याचना, अलाभ, रोग, त्रण-स्पर्श, मल, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अप्रदर्शन इन परीषहों को आगम के अनुकूल जीतते है। दिगम्बर जैन साधु के तीन भेद आगम में बताये हैं। यथा आचार्य उपाध्याय और साधु-इन तीनों के लक्षण इस प्रकार है। आचार्य परमेष्टी के लक्षण संसार शरीर भोगों से विरक्त चित्त श्रावक को धर्म मार्ग में दृढ़ करते हुए उसकी शक्त्यानुसार वीतराग मार्ग में दीक्षित करना आगमानुकूल स्वयं पंचाचार पालना तथा संघस्थ सभी साधु वर्ग को प्रायश्चित आदि देकर उन्हें उनके पद पर स्थित करना धर्मोपदेश देना सदाचार सन्मार्ग का प्रचार करना ध्यानाध्ययन में लीन रहना यह आचार्य साधु छत्तीस मूल गुण धारी होते हैं। शिष्यों को संग्रह करने में चतुर (समर्थ) श्रुत और चारित्र विषय आरूढ़ अन्य मुनियों को पांच प्रकार के प्राचार को अर. चावे और स्वयं आचरण करे । किसी साधु का व्रत भंग हो जाय उसको प्रायाश्चित देकर शुद्ध कर देते है और दीक्षा देकर शिष्यों का हित करते हैं - ऐसे आचार्य होते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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