Book Title: Digambar Jain Muni Swarup Tatha Aahardan Vidhi
Author(s): Jiyalal Jain
Publisher: Jiyalal Jain

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Page 19
________________ के उपसर्ग तथा परीषह जीते हों और प्रार्त रौद्र परिणाम जिनके नहीं होते वह साधु कहलाते हैं। मनोज्ञ जिनका उपदेश लोक मान्य हो तथा जिनकी आकृति को देखकर लोगों के दिल में स्वयं पूज्यता के भाव पैदा हो जायें और जैन मार्ग का गौरव रखते हों, श्रेष्ट वक्ता हों, महान कुलवान हों वे मनोज्ञ कहलाते हैं। उपरोक्त वह प्राचार्य उपाध्याय आदि दश भेद रूप जो दिगम्बर मुद्राधारी साधु हैं [मुनि हैं] उन साधुनों की वैयावृत्य जरूर करना चाहिये। श्रावक का प्रथम कर्तव्य है कि वह अपने धर्म मार्ग दृष्टा गुरुप्रो की वैयावृत्य में सतत तत्पर रहे । अब श्रावकोचित षट् कर्मों (कार्यों) में से गुरुपास्ति और दान इन दा कर्मों पर ही प्रस्तुत पुस्तक में विचार करना है। गुरुपास्ति प्राचार्यों ने श्रावकों के प्रतिदिन करने योग्य १- जिनेन्द्र देव की पूजा, २. गुर जनों की भक्ति, ३. उपासना शास्त्र स्वाध्याय, ४. संयम तथा योग्यतानुसार ५. तप, ६- दान और गुरुओं की उपासना यह छह आवश्यक क्रियायें नित्य करने योग्य बताई हैं। उनमें देव पूजा के समान ही "गुरुपास्ति' भी अत्यावश्यक है। जो पुरुष देव गुरु और धर्म की उपासना करना है, वह कभी दुखी नहीं होता है । वह ऐहिक और पारलौकिक दोनों सुख प्राप्त करता है। इनकी उपासना करता हुआ व्याकुल नहीं होना चाहिये। सुगुरु सेवा से ही जीव अपना कल्याण कर सकता है। संसार रूप अथाह समुद्र से पार करने को सुगुरु ही तारण तरण जह ज है । सुगुरु सेवा में दिया हुआ समय और द्रव्य वट बीज के वृक्षको तरह फलदायक होता है । अतः श्रावकों को गुरुपास्ति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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