Book Title: Digambar Jain Muni Swarup Tatha Aahardan Vidhi
Author(s): Jiyalal Jain
Publisher: Jiyalal Jain

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Page 20
________________ [साधु सेवा ] अवश्य २ करनी चाहिये। दान दान चार प्रकार का होता है १- अहारदान, २- अभयदान ३- ज्ञानदान, ४- औषधिदान । हम यहाँ आहारदान पर विचार करेंगे । भक्ति सहित फल की इच्छा के विना मुनि, आर्यका, श्रावक,श्राविकाको जो अहार दान देता है, वह अत्यन्त कल्याणकारी है । इस भव में यश की प्राप्ति होती है तथा अहार दान धर्मोपदेष्ठात्रों को देने से उनकी शरीर स्थिति रहती है । और शरीर स्थिति के कारण धर्मोपदेश के लाभ से आत्म-कल्याण की प्राप्ति होती है। जिनके घर से दान नहीं दिया जाता उस घर को आचार्यों ने श्मसान के तूल्य बताया है। अतः अपनी सामथ्यानुकूल अवश्य दान देना योग्य है। जिससे पुण्य बंध होकर भविष्य में सुख प्राप्त हो । • नीतिकारों ने धन की तीन गति (दशा] बतलाई हैं । दान भोग, नाश । जो पुरुष दान नहीं देता,भोगभी नहीं करता उसके धन की तीसरी दशा होतो है । यदि धन को दानादि में लगाकर सफल नहीं किया जावे, तो धन सर्वथा दुःख का ही आश्रय है। धन दान देनेसे भी कभी घटता नहीं जब कभी घटता है, तो पाप के उदय से घटता है । जैसे कुए का जल पीने से कभी नहीं घटता । एवं विद्या कभी देने से नहीं घटती। पढ़ाने से वृद्धि को प्राप्त होती है। उसी प्रकार धन की दशा है। ज्यों ज्यों दान दिया जाता है, पुण्य की प्राप्ति होती है। अतः पुण्य के फल रूप धन बढ़ता है । कोई पूर्व का पाप उदय में आजावे तो उससे धन घट सकता है । अन्यथा दान देने से धन नहीं घट सकता। इस कारण हे भव्य जीवो मनुष्य जीवन को सफल बनाने के लिए दान अवश्य देना चाहिये । दान देते समय ध्यान रहे कि सपात्र को दान देने से ही पुण्य की प्राप्ति होती हैं। सत्पात्र में लगाया हुआ दान अच्छे स्थान में बोये हुये बोज के समान सफल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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