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जैनग्रन्थरत्नाकरे wwwwwww स्वारथ भलो है जो तू स्वारथको पहिचान,
स्वारथ पिछाने विन स्वारथ जहर सो । वानारसीदास ऐसे स्वारथके रंगराचे,
लोकनके स्वारथको लागत कहर सो ॥ १८॥ उलट पलट नट खेलत मिलत लोक,
याके उलटत भव एक तान है रह्यो। अज हूं न ठाम आवै विकथा श्रवण भावै,
महामोह निद्रामें अनादि काल स्वैरह्यो । बानारसीदास जागे जागै तासों बनि आवै,
जिनवर उकति अमृत रस च्वैरह्यो । उलटि जो खेल तो तो ख्याल सो उठाय धरै,
उलटिके खेले विन खोटे ख्याल है रह्यो ॥ १९॥ कौन काल मुगध करत बध दीनपशु,
जागी ना अगमज्योति कैसो जज्ञ करि है। कौन काज सरिता समुद्र सरजल डोहै,
आतम अमल डोयो अजहूं न डरि है । काहे परिणाम संकलेश रूप करै जीव !
पुण्यपाप भेद किये कहुं न उघरि है। बानारसीदास जिन उकति अमृत रस,
सोई ज्ञान सुने तू अनंत भव तरि है ॥ २० ॥
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