Book Title: Banarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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बनारसीविलासः
२३५
ज्यों पकवान चुरेलका, विषयारस त्यों ही। ।
ताके लालंच तू फिर, अम भूलत यों ही, ऐसें ॥ २ ॥ , देह अपावन खेटकी, अपनी करि मानी।
भाषा मर्नसा करमकी, तें निजकर जानी । ऐसें ॥ ३॥ नाव कहावति लोककी, सो तौ नहिं भूले। * जाति जगतकी कलपना, तामैं तू झूलै । ऐसें ॥ ४ ॥ माटी भूमि पहारकी, तुह संपत्ति सूझै ।
प्रगट पहेंली मोहकी, तू तऊ न बूझै । ऐसें ॥५॥ 3 ते कबहू निलु गुनविषै, निजदृष्टि न दीनी।
पराधीन परवस्तुसों, अपनायत क्रीनी, ऐसें ॥ ६ ॥ ज्यो मृगताभि सुवास सों, ढूंढत चन दौरे।
त्यों तुझमें तेरा धनी, तू खोजत औरै, ऐसें ॥ ७॥ करता मरता भोगता, घट सो घटमाहीं। * ज्ञान विना सदगुरु विना, तू समुझत नाहीं । ऐसें ॥८॥
राग विलापका ऐसे यो प्रभु पाइये, सुन पंडित पानी।
ज्यों मथि माखन काढिये, दधि मेलि मथानी, ऐसें ॥१॥ १ ज्यो रसलीन रसायनी, रसरीति अराधै। ।
त्यो घटमें परमारथी, परमारथ साथै, ऐसें ॥ २ ॥

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