Book Title: Banarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 354
________________ १२३४ जैनग्रन्थरत्नाकरे । Htt.kutarattituttitutteketekkkkkkkkrist.titutkukkuttstotkakkakakitution राग बिलावल। इहि विधि देव अदेवकी, मुद्रा लखलीजे, * गुन लच्छन पहिचानकै, पद पूजा कीजै ।। टेक॥ ॐ पट भूपन पहरे रहै, प्रतिमा जो कोई । सो गृहस्थ मायामयी, मुनिराज न होई ॥२॥ जाके तिय संगति नहीं, नहिं वसन न भूषन । सो छवि है सर्वज्ञकी, निर्मल निरदूपन ॥ ३ ॥ वाम अंग जाके त्रिया, अथवा अरधंगी। . सो तो प्रगट कुदेव है, विषयी रसरंगी ॥१॥ निरद्वंदी निरपरिगृही, जोगासन ध्यानी । सो है मूरति सिद्धकी, के फेवलज्ञानी ॥ ५ ॥ __ जो प्रचंड आयुध लिये, कर ऊरध वाह । प्रगट विनोदी देवता, मारैगा काहू ॥ ६॥ जो न कछू करनी करै, नहिं आयुध पानी । सो प्रतिमा भगवंतकी, निरवैर निशानी ॥ ७ ॥ जो पशुरूपी पशुमुखी, पशुवाहनधारी । ते सब असुर अबंदनी, निरदय संसारी ॥ ८॥ INTrtetat-kattitutkXXXAttitutetLEE- EXIXxzettetT3Betituttitutatut.3.3. : राग विसावल । ऐसे क्यों प्रभु पाइये, सुन मूरख पानी। ' जैसें निरख मरीचिका, मृग मानत पानी । ऐसें ॥ १॥

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