Book Title: Banarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 364
________________ Astt.ttitutti..ki httttatuttituttikusatttituttotkkkkkkkkkkkkkkkkkatttttart २४४ जैनग्रन्थरताकरे सुगुरु उचारै मूढसौं, चेत चेत चित चेत। समुझ समुझ गुरुको शवद, यह तेरो हित हेत ॥ २॥ शुक्र सारी समुझे शबद, समुझि न भूलहिं रंच। । तू मूरति नारायणी, वे तो खग तिरजंच ॥३॥ होय जोहरी जगतमें, घटकी आखें खोलि। तुला संवार विवेककी, शब्द जवाहिर तोलि ॥ ४॥ शब्द जवाहिर शब्द गुरु, शब्द ब्रह्मको खोज । सब गुण गर्मित शब्दमें, समुझ शब्दकी चोन ॥ ५ ॥ समुझ सकै तो समुझ अब, है दुर्लभ नर देह । फिर यह संगति कव मिल, तू चातक हो मेह ॥ ६ ॥ r traitrintrutti राग गौरी। भौंदू भाई ! समुझ शयद यह मेरा, जो तू देखै इन ऑम्बिॐ नसौं तामैं कछू न तेरा, भौंदू० ॥ १॥ ए आँसें प्रमहीसा उपजी, श्रमहीके रस पागी । जहँ जहँ श्रम तहँ तहँ इनको श्रम, तू इनहीको रागी, भौंदू भाई० ॥२॥ ए आँख दोर रची चामकी, चाम हि चाम विलोवै । ताकी ओट मोह ।। निद्रा जुत, सुपनरूप तू जोवै, भौंदू भाई० ॥ ३ ॥ इन औं । खिनको कौन भरोसो, ए विनसें छिन माहीं।है इनको पुदगलसौं । ॐ परचे, तू तो पुगल नाही, भौंदू भाई० ॥ ४ ॥ पराधीन बल इन आंखिनको, विनु परकाश न सूझै । सो परकाश अगनि १व्यंग, tutetott...trant-titute

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