Book Title: Banarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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बनारसीविलासः २१३ भूमि यान धन धान्य गृह, साजन कुप्य अपार। सयनासन चौपद द्विपद, परिगह दश परकार ॥ २६ ॥ । खान पान परिधान पट, निद्रा मूत्र पुरीस। ये घट कर्म सबहिं करे, राजा रंक सरीस ॥ २७ ॥ उचित वसन सुरुचित असन, सलिल पान सुख सैन । बड़ी नीति लघुनीतिसों, होय सबनको चैनं ॥ २८ ॥
चतुर्दश नियम विगै दरव तंबोल पट, शील सचित्त स्नान । दिशि अहार पान रु पुहुप, समन विलेपन यान ॥२९॥ शीलवन्त मंडै न तन, अघि पद गहै न संत। पिताजात न हनें पिता, सती न माहि कत ॥ ३० ॥ कामी तन मंडन करै, दुष्ट गहै अधिकार । जारजात मारहि पिता, असति हनें भरतार ॥ ३१ ॥ ज्ञानहीन करणी कर, यों निजमन आमोद । ज्यों छेरी निज खुरहितें, छुरी निकास खोद ॥ ३२ ॥ राजऋद्धि सुख भोगवे, ऐसे मूह अजान । महा सन्निपाती करहि, जैसें शरबत पान ॥ ३३ ॥ जहँ आपा तहँ आपदा, जहँ संशय तहँ सोग । सतगुरु विन भागें नहीं, दोऊ जालिम रोग ॥ ३४ ॥
जे आशाके दास ते, पुरुष जगतके दास । __ आशा दासी जास की, जगत दास है तास ॥ ३५ ॥
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