Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 01
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: Shantyasha Prakashan

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Page 13
________________ कर लेने पर अब यह भूख की बाधा कैसे रह सकती है ? जब मैंने आप जैसे निरंजन/निर्दोष परमात्मा को पा लिया है / अपने शुद्धात्मा को पहिचान लिया है, तब यह भूख की कालिमा अब कैसे रह सकती है ? अब नियम से यह नष्ट होगी ही होगी। अब मुझे इन जड़ व्यंजनों की आवश्यकता नहीं रहेगी; अतः उन्हें आपकी पूजन के बहाने आपकी साक्षी में छोड़ने का संकल्प लेने आया हूँ । दीप - चिन्मय - विज्ञान भवन अधिपति, तुम लोकालोक-प्रकाशक हो । कैवल्य किरण से ज्योतित प्रभु ! तुम महा-मोह तम नाशक हो । । तुम हो प्रकाश के पुंज नाथ ! आवरणों की परछाँह नहीं । प्रतिबिंबित पूरी ज्ञेयावलि, पर चिन्मयता को आँच नहीं । । ले आया दीपक चरणों में, रे ! अन्तर आलोकित कर दो । प्रभु तेरे मेरे अन्तर को, अविलंब निरन्तर से भर दो । । हे भगवन ! आप अनंतज्ञान, अनंतदर्शन रूप चैतन्यमय विज्ञान भवन के अधिपति/ स्वामी हैं/ आप अनंत चतुष्टय सम्पन्न हैं । आपके ज्ञान में सम्पूर्ण लोकालोक प्रकाशित हो रहा है / झलक रहा है। आपका सम्पूर्ण भवन केवलज्ञान रूपी महादीप की प्रकाश-किरणों से प्रकाशित है। आप अनादिकालीन महा मोह रूपी अधंकार को नष्ट करनेवाले हैं। हे प्रभो ! आपका अद्भुत ज्ञानमय जीवन मानो प्रकाश का ही पुंज है; इस पर ज्ञानावरण आदि आवरणों की परछाईं भी नहीं है / आप द्रव्यभाव घाति कर्मों से पूर्णतया रहित हैं । यद्यपि आपके इस ज्ञान में सम्पूर्ण ज्ञेयावलि / तीनकाल - तीन लोकवर्ती समस्त पदार्थ प्रतिबिम्बित हो रहे हैं; तथापि आपकी चैतन्यमयता उनसे रंचमात्र प्रभावित नहीं है / सभी पदार्थों को सहज भाव से जानते हुए भी आप उनसे पूर्णतया निरपेक्ष हैं, पूर्ण वीतरागी हैं। हे भगवन ! मैं आपके चरणों में यह अपना ज्ञानरूपी दीपक लेकर आया हूँ । आप इससे मेरे अंतर् आत्मा को प्रकाशित कर दें / आप मुझे वह पथ बताएं कि जिसे अपनाकर मैं अपने श्रुतज्ञानरूपी दीपक से स्वयं को प्रकाशित कर, उसमें ही स्थिर रह सकूँ; मोहांधकार का नाशकर, आप जैसा बन सकूँ। हे प्रभो ! इस ज्ञानरूपी दीपक से आप आपके और मेरे बीच के अंतर को शीघ्र नष्ट कर दें / आपके द्वारा बताए गए मार्ग पर चलकर / अपने आत्मा में पूर्ण स्थिर हो आपके ही समान मैं भी वीतरागी - सर्वज्ञ भगवान बन जाऊँ। सीमंधर पूजन / 8

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