Book Title: Sagarotpatti
Author(s): Suryamal Maharaj
Publisher: Naubatrai Badaliya

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Page 3
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आज भी उसी की परम्परानुगत पीताम्बर आनन्द सागर नामधारी उसी विवाद को पुनः जैन समाजमें प्रकाशित कर अपनी योग्यता तथा पाण्डित्य का परिचय देकर सुशुप्तावस्था के समुद्र के आनन्दमें मग्न हो रहा है । आपने (क) इर्या पथिकी षट् . त्रि शिका (स्व) नवपद लघुवृति तथा (ग) नवपद बृहद्वृति नामक तीन ग्रन्थोंको प्रकाशित कराया है। परन्तु शोकका विषय है कि अद्यावधि तपागच्छीय सम्प्रदाय वालों से किसी भी सजनने उनके इस कुत्सितकार्य की समालोचना नहीं की है। इस से यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि समस्त तपागच्छीय सम्प्रदाय आनन्द सागर के इस कुतसित कार्य में सहानुभूति प्रकट करता है। इन्ही कई कारणोंसे मुझे इन ग्रन्थों के प्रतिकूल ( विरुद्ध ) आवाज़ उठानी पड़ी। इस कार्य को पूतिके लिये मुझे अनेकों ऐसे प्राचीन ग्रन्थोंका अनुसन्धान करना पड़ा है जिसमें तपागच्छीय सम्प्रदायकी पूर्ण खण्डनात्मक आलोचना करनेकी सामग्री एकत्रित की गई है। इस अवसर पर मैं अपनी हार्दिक अभिलाषा पाठकोंके सामने प्रगट कर देना उचित समझता हूँ कि अनवरत परिश्रम करके प्राचीन खंडनात्मकग्रन्थों का अनुसन्धान करने पर भी मैं नहीं चाहता था कि इन ग्रन्थो को प्रकाशित कराऊ। इसीलिये, मैने आगमोदय समिति जैन कान्फरेन्स. अानन्दजी कल्याणजी के कार्यकर्ता गण श्री वल्लभ विजय जी तथा कान्ति बिजय जी आदि साधुवर्ग For Private And Personal Use Only

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