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( २० )
सागरोत्पत्ति पार्श्व यक्षसे सेवित श्री जिन पार्श्वनाथजी को नमस्कारकर मैं सम्यग्भकारसे तपामतकी एवंसागरोंकी उत्पतिका वर्णन करता हूँ॥१॥हे चाण्डालिक मतावलम्बियों ! मैंने जिस प्रकार देखा और सुना है तद्वत मैं उसका उल्लेख करता हूँ। इसमें मेरा कुछ दोष नहीं है ॥२॥ प्राचीन कालमें, श्रेष्ठ स्तम्भनपुर निवासी चैसवासी, मठधारी, पणी रत्न नामक एक प्राचार्य था ॥ ३॥ इसने, एक समय, विधवाका पुत्र तथा विजातीय जगत चन्द्र नायक एक बालक को तीन सौ ३००) रुपये पर खरीदा ॥ ४ ॥ इस बालकने उस की शिष्यता स्वीकार करली। परन्तु; शिक्षादेने पर भी इसने अपनी आदत न छोड़ी। गुरुओं से सर्वदा कलह करता रहा ॥५॥ यह देख दुःखित हो कर श्री पणिरत्न जीने उसे अपने गणसे अलग कर दिया। वह भो क्रोधित हो कर अहङ्कार से, गणका परियाग कर चल दिया ॥६॥ ___ यह दुष्ट अपने गुरू और दूसरों को दूषित करके, बकवृति धारण कर सवकी निन्दा करने के कारण, धिक्कारका पात्र वना। इसके बाद उसने उच्छिष्ट चाण्डालोको सेवा की। देवी प्रसन्न होकर प्रगट हुई और उसने जगत चन्द्रको वरदान
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