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तृतीय परिच्छेद ॥
( ३६ )
ऊपर कहे हुए प्रासनपर बैठकर चरणके श्रङ्गुष्ठ पर्यन्त (१) धीरे २ पवन का रेचन कर उसको वाम मार्ग से पूर्ण करे, पहिले मनके साथ पैर के में रोककर पीछे पादतल में रोके तदनन्तर पार्ष्णि, (२) गुल्फ, (३) श्रङ्गुष्ठ जङ्घा, जानु, (४) ऊरु, (५) गुद, (६) लिङ्ग, नाभि, तुन्द, (७) हृदय, क जिह्वा, तालुनासिका, का अग्रभाग, नेत्र, भ्रू, (८) मस्तक तथा शिर में धारण करे, इस प्रकार से रश्मि (९) के क्रम से ही पवन के साथ धारण कर तथा उसे एक स्थान से दूसरे स्थानमें ले जाकर ब्रह्मपुरतक ले जावे, तदन्तर नाभि कमल के भीतर लेजाकर वायु का विरेचन कर दे ॥ २७-३१॥
पैर के अङ्गुष्ठ ष्ठ श्रादिमें; जंघा में; जानुमें; ऊरुमें; गुद में तथा लिङ्गमें क्रमसे धारण किया हुआ वायु शीघ्रगति तथा बलके लिये होता है, (१०) नाभि में धारण किया हुआ ज्वरादि के नाश के लिये होता है, जठर (११) में धारण किया हुआ शरीर की शुद्धि के लिये होता है, हृदय में धारण किया हुआ ज्ञान के लिये तथा कूर्म नाड़ी में धारण किया हुआ रोग और बुढ़ापेके नाश के लिये होता है, कण्ठ में धारण किया हुआ भूख और प्यास के नाश के लिये तथा जिहवा के अग्र भाग में धारण किया हुआ रस ज्ञान (१२) के लिये होता है, नासिका के अग्रभागमें धारण किया हुआ हुआ गन्ध के ज्ञानके लिये तथा नेत्रोंमें धारण किया हुआ रूप के ज्ञान के लिये होता है मस्तक में धारण किया हुआ रूप के ज्ञान के लिये होता है, मस्तक में धारण किया हुआ मस्तक सम्बन्धी रोगोंके नाश के लिये तथा क्रोधकी शान्ति के लिये होता है तथा ब्रह्मरन्ध्र (१३) में धारण किया हुआ सिद्धों के साक्षात् (१४) दर्शन के लिये होता है ॥३२-३५॥
इस प्रकार से धारण का अभ्यास कर पवन की चेष्टा को निस्सन्देह होकर (१५) सिद्धियों का (१६) प्रधान (१७) कारा जाने ॥ ३६ ॥
१- अंगूठेत ॥ २- एड़ी ॥ ३-घुटिका ॥ ४-घुटना ॥ ५-जंघा ॥ ६-मलद्वार ! ७- तोंद, पेट ॥ ८-भौंह ॥ ६-पक्ष | १०-बलको देता है ॥ १२-पेट ॥ १२-मधुर आदि रसोंका ज्ञान ॥ १३-ब्रह्मद्रि ॥ १४- प्रत्यक्ष ॥ १५- सन्देह रहित होकर, शङ्काको छो. ड़कर ॥ १६-अणिमा आदि आठ सिद्धियों का ॥ १७-मुख्य ॥
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