Book Title: Mantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Author(s): Jinkirtisuri, Jaydayal Sharma
Publisher: Jaydayal Sharma

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Page 270
________________ (२३०) श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ।। (ग ) श्री हेमचन्द्राचार्य जी महाराजने साधु और मुनि शब्द को प. र्याय वाचक (१) कहा है, उस मुनि वा माधु का लक्षण पद्म पुराणमें जो लिखा है उसका संक्षिप्त आशय यह है कि "जो कुछ मिल जावे तसीमें स. न्तुष्ट रहनेवाला, समचित्त (२), जितेन्द्रिय (३), भगवान के चरणों का प्रा. श्रय रखनेवाला, निन्दा न करनेवाला ज्ञानी, वैर से रहित, दयावान्, शान्त (४) दम्भ (५) और अहंकार से रहित त्या इच्छासे रहित जो वीलराग (9) मुनि है वह इस संसार में साधु कहा जाता है लोभ, मोह, मदः क्रोध और कामादि से रहित, सुखी, भगवान्के चरणों का प्राश्रय लेनेवाला, सहनशील तथा समदर्शी (5) जो पुरुष है उसको साध कहते हैं, समचित्त, पवित्र, सर्व प्राणियोंपर दया करनेवाला तथा विवेकवान् (e) जो मुनि है वही उत्तम साधु है, स्त्री पुरुष और सम्पत्ति आदि विषय में जिसका मन और इन्द्रियां चलायमान नहीं होती हैं, जो अपने चित्त को सर्वदा स्थिर रखता है, शास्त्र के स्वाध्याय (१०) में जिसकी पूर्ण भक्ति है तथा जो रमपर भगवान् के ध्यानमें तत्पर रहता है वही उत्तम साधु है” इत्यादि, साधुओंके लक्षणोंको आप उक्त वाक्यों के द्वारा जान चुके हैं कि वे वीतराग, सर्वकामना पूर्ण (११) तथा परकामना समर्थक (१२) होते हैं, अतः मानना चाहिये कि एतद्गुण विशिष्ट साधुओंके ध्यानसे प्राकाम्य सिद्धि की प्राप्ति होती है। (घ ) गरुडपुराण में भी कहा है किः-- न प्रहृष्यति सम्माने, नावमानेन कुष्यति ॥ न क्रुद्धः परुषं ब्रू या, देतत् साधोस्तु लक्षणम् ॥ १॥ अर्थात् जो सम्मान (१४) करनेपर प्रसन्न नहीं होता है तथा अपमान (१५) करने पर ऋद्ध (१६) नहीं होता है तथा ऋद्ध होकर भी कभी कठोर वचन नहीं बोलता है। यही साधु का लक्षण है ॥ १ ॥ तात्पर्य यह है कि-मान व अपमान करने पर भी जिम की वासना (१७) हर्ष वा क्रोध के लिये जागृत (१८) नहीं होती है अर्थात् जिम में इच्छा १-एकार्थ वाचक ॥२-समान चित्तवाला ॥ ३-इन्द्रियोंको जीतनेवाला॥४शान्तिसे युक्त ॥५-पाखण्ड ॥६-अभिमान ॥ ७-रागसे रहित ॥ ८-सबको समान . देखनेवाला ॥६-विवेकसे युक्त ॥ १०-पठन पाठन ॥ ११-सब इच्छाओंसे पूर्ण। १२-दूसरे की इच्छाओंको पूर्ण करनेवाले ॥ १३-इन गुणोंसे युक्त ॥ १४-आदर ॥ १५- अनादर ॥ १६-कुपित ॥ १७-इच्छा , संस्कार ॥ १८-प्रबुद्ध ॥ Aho ! Shrutgyanam

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