Book Title: Mantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Author(s): Jinkirtisuri, Jaydayal Sharma
Publisher: Jaydayal Sharma

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Page 272
________________ (२३२.) श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥ वृक्ष स्वयं दुःख को सहता है तथा दूसरों को श्राह्लाद (१) देता है ॥ ५ ॥ साधु जनों का उक्त स्वभाव होने से उन के पाराधन से प्राकाम्य सिद्धि की प्राप्ति होती है। ... (च)-प्राचार के यथावत् (२) विज्ञान और परिपालन के कारण साधु को प्राचार रूप माना गया है (३), अतएव जिस प्रकार आचार के परिपा. लन से धर्म की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार साध के प्राराधन से धर्म की प्राप्ति होती है, अथवा यह समझना चाहिये कि-साध की आराधना से धर्म की आराधना होती है तथा धर्म सर्व काम समर्थक ( सब कामनानोंको को पूर्ण करने वाला ) सर्व जगत्प्रसिद्ध है, अतः साधु के माराधन से प्राकाभ्य नामक सिद्धि की प्राप्ति होती है। (छ)-विष्ण पुराणमें “साधं” इस पद के उच्चारस मासे सर्व कामनाओं की सिद्धि का उल्लेख (४) किया गया है, अतः मामना पड़ेगा कि "सव्वसाहूणं” इस पदके ध्यान और जप से प्राकाम्य सिद्धि अवश्य होती है। (ज) “सव्यसाहूणं” इस पदमें संयुक्त (५) सर्व शब्द इस बात का वि. शेषतया (६) द्योतक (७) है कि-इस पदके ध्यानसे सर्व कामनाओंकी निपत्ति अर्थात् सिद्धि होती है, क्योंकि-"सर्वान् (कामान् ) साधयन्ति इति सर्वसाधवस्तेभ्यः” अर्थात् सब कामों ( इच्छाओं ) को जो सिद्ध (पूर्ण ) करते हैं उनको सर्वसाधु कहते हैं। (प्रश्न )-"पंचणमोक्कारो” इस पदमें ईशित्व सिद्धि क्यों सन्निविष्ट है? ( उत्तर )-"पंचणमोक्कारो” इस पदमें जो ईशित्व सिद्धि सन्निविष्ट है उसके ये हेतु हैं: (क)-"पञ्च” शब्द से पञ्च परमेष्ठियोंका ग्रहण होता है तथा जो प. रम अर्थात् सबसे उत्कृष्ट (८) स्थानपर स्थित हैं उन्हें परमेष्ठी कहते हैं, सर्वोत्कृष्ट (ए) स्थान पर स्थित होनेसे परमेष्ठी सबके ईश अर्थात् स्वामी १-आनन्द ॥२-यथार्थ ॥ ३-द्वादशाङ्गीके वर्णन के अधिकार में श्रीनन्दीसूत्रमें उल्लिखित “से एवं आयां एवं नाया” इत्यादि वाक्यों को देना ॥ ४-कथन ॥ ५मिला हुआ ॥६-विशेषताके साथ ॥ ७-प्रकाशक ॥ ८-उत्तम ॥ १-सबसे उत्तम ॥ Aho! Shrutgyanam

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