________________
षष्ठ परिच्छेद ॥
( २०७) श्रीनाचाराङ्ग सूत्र के पांचवे उद्देशक के आदि सूत्र ( सेवे मितं जहा इ. त्यादि सूत्र ) में प्राचार्य के गुण कहे गये हैं तथा उसे हृद (१) को उपमा दी गई है, उक्त सूत्र की व्याख्या करते हुए श्रीमान् विवृतिकारने दृष्टान्त और दान्ति (२) को स्पष्ट करने के लिये चार भङ्ग दिखलाये हैं, जिनमें से प्रथम भङ यह है कि-एक हद ( जलाशय) सीतासीतोदा प्रवाह हद के समान परिगलस्रोत ( स्रोतों के द्वारा जल को निकालने वाला) तथा पर्यागल. स्रोत ( स्रोतों के द्वारा जल को लेने वाला ) होता है, दूसरा भंग यह है कि-अन्य हद पद्म हद के समान परिगलस्रोत (३) होता है किन्तु 'पर्यागलत्स्रोत नहीं होता है, तीसरा भंग यह है कि अन्य 'हृद लवणोदधि के समान परिगलत्स्रोत नहीं होता है किन्तु पर्यागलस्रोत होता है तथा चौथा भंग यह दिखलाया है कि-अन्य हद मनष्यलोक से बाह्य समुद्र के समान न तो परिगलस्रोत होता है, और न पर्यागलस्रोत होता है।
इस प्रकार हद का वर्णन कर दान्ति ( प्राचार्य ) के विषय में यह कहा है कि श्रुतकी अपेक्षासे आचार्य प्रथम भंग पतित (४) होता है; क्योंकि श्रुत का दान और 'ग्रहण भी होता है, साम्परायिक कर्म की अपेक्षा से प्राचार्य द्वितीय भंग पतित (५) होता है। क्योंकि कषायों (६) के उदय के न होने से उक्त कर्म का ग्रहण नहीं होता है किन्तु तप और कायोत्सर्ग आदि के द्वारा उसका क्षपणा (७) ही होता है, मालोचना [८] की अपेक्षा से प्रा. चार्य तृतीय भंग पतित [] होता है, क्योंकि पालोचनाका प्रतिश्राव [१०] नहीं होता है तथा कुमार्ग की अपेक्षा से प्राचार्य चतुर्थ भंग पतित २१] होता है। क्योंकि कुमार्ग का[ आचार्य में ) प्रवेश [१२] और निर्गम [१३] दोनों ही नहीं होते हैं।
इस के पश्चात् धर्मी के भेद से उक्त चारो भंगों की योजना दिखलाई है। तदनन्तर [१४] प्रथम भंग पतित [१५] प्राचार्य के अधिकार से हद के दू. १-जलाशय, तालाव ॥२-जिप्स के लिये दृष्टान्त दिया जाता है उसे दाष्टान्त कहते हैं ॥ ३-परिगलत्स्रोत तथा पर्यागलात्त्रात का अर्थ अभी लिख चुके हैं । ४-प्रथम भङ्गमें स्थित ॥५-द्वितीय भङ्ग में स्थित ॥ ६-क्रोधादि को ॥ ७-नाश, खपाना॥ ८-विचार, विवेक ॥ ६-तृतीय भङ्ग में स्थित ॥ १०-विनाश, क्षरण ॥ ११-चतुर्थ भङ्ग में स्थित ॥१२-घुसना ॥१३-निकलना ॥१४-उस के पश्चात् ॥ १५-प्रथम भङ्ग में स्थित ॥
Aho! Shrutgyanam