Book Title: Mantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Author(s): Jinkirtisuri, Jaydayal Sharma
Publisher: Jaydayal Sharma

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Page 262
________________ (२२२) श्रीमन्नराजगुणकल्पमहोदधि । "हं” अर्थात् अनुनय का द्योतन (९) करते हैं, और “ताणं" अर्थात् दन्त मण्डल तथा प्रोष्ट मण्डल को विस्तृत (२) रखते हैं. इस प्रकार अभ्यास करने से उन योगी जनोंको जिस प्रकार महिमा सिद्धि की प्राप्ति होती है उसी प्रकार "अरिहंताणं " पद के श्यान जप और स्मरण करने से महिमा मिद्धि की प्राप्ति होती है, इस विषय में यह भी जान लेना चाहिये कि अ. णिमा सिद्धि की प्राप्ति के लिये उदान वायुके संयम के साथ योगीजनों को श्रोष्ठ मण्डल को श्रावृत्त (३) करना पड़ता है ( जैसा कि पूर्व अणिमा सिद्धिके वर्णन में लिख चुके हैं ) इसका कारण यह है कि श्रोष्ठ मण्डल के नावरण करनेसे बाह्य (४) पवन भीतर प्रवेश नहीं कर सकता है तथा प्रा. गायाम पूर्वक उदान वाय का संयम होनेसे एवं स्वाम गति के अवरोध (५) होनेसे नासिका के द्वारा भी बाह्य पवन भीतर प्रविष्ट नहीं हो सकता है। किञ्च-भीतरी पधन भी संयमके प्रभावसे दग्ध (५) हो जाता है, ऐसा होने से प्रणभाव (७' के द्वारा उन्हें अणिमा सिद्धि की प्राप्ति होती है, परन्तु म. हिमा सिद्धि में दम्तमण्डल और ओष्ठ मण्डल को खुला रखना पड़ता है, इस हेतु संयम क्रिया विशेषके द्वारा अमित (८) पवन के प्रवेश से योगी महत्त्व को धारण कर सकता है, विज्ञान वेत्ता (९) जन इस बातको अच्छे प्रकार जानते हैं कि प्रति सेकण्ड कई सहस्र मन पवन का बोम हमारे शरीर पर पड़ता है वह सब बोझ संयम क्रिया विशेष के द्वारा योगी जन अपने शरीर में प्रविष्ट करलेता है तथा उसे महिमा के रूप में परिणत कर लेता है, हां इसमें विशेषता यह है कि योगाभ्यासी पुरुष अपनी शक्ति के द्वारा पवन के जितने भागको लेना चाहता है उतना ही लेता है. अतएव वह जितने बड़े सूपको धारण करना चाहता है उतना ही कर सकता है। (प्रश्न ) "सिद्धाणं" पदमें गरिमा सिद्ध क्यों सन्निविष्ट है ? ( उत्तर ) "सिद्धाणं” पद में जो गरिमा सिद्धि सन्निविष्ट है उस के हेतु (क ) "सिद्धाणं” पद सर्वया गुरुमात्राविशिष्ट (१०) है और अपने १-प्रकाश ॥ २-विस्तार युक्त ॥ ३-आच्छादित, ढका हुआ ॥ ४-बाहरी ॥ ५-रुकावट ॥ ६-जला हुआ, भस्मरूप॥ ७-सूक्ष्मपन ॥ ८-वे परिणाम || -विज्ञान के जानने वाले ॥ १०-गुरु मात्राओंसे युक्त ॥ Aho! Shrutgyanam

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