Book Title: Jyotishsara Prakrit
Author(s): Bhagwandas Jain
Publisher: Bhagwandas Jain

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Page 51
________________ हिन्दी भाषा-टीका समेतः। परिघ माहात्म्य-- अग्नेयं च वायव्यां, परिधस्तिष्ठति.महीम् । देवा अपि न लङ्घन्ति, दानवा अपि. मानवाः ॥ ११७ ॥ भावार्थ-पृथ्वी पर आग्नेय कोण और वायव्य कोणमें परिघ दण्ड रहा है उसको देव दानव और मनुष्य भी उल्लंघन नहीं करते हैं ॥ ११७॥ . पंचक फल णिहाइ वजि पंचग, संगह तिण कट्ठ गेह आरम्भ। 'मियकम्मं सिजाय, दक्षिण दिग जाइ पमुहा य ॥११॥ धणनास धणिहाए, पाणघाव हि सितभिस रिषखं । पुवभ निवदण्डय, उत्तरभद्द कलह कारीय ॥ ११६ ॥ अग्गी दाहो रेवय, पञ्चग पंचेइ लक्खणं एय। जाणेय वजियव्वो, हीरं जोइसिय कहियाय ॥ १२० ॥ भावार्थ-धनिष्ठादि पांच नक्षत्रों को पञ्चक कहते है, इसमें तृण काष्ठ का संग्रह नहीं करना, मकान सम्बन्धी कोई कार्य नहीं करना, मृतकर्म नहीं करना, शय्या मांचा आदि बनाना नहीं और दक्षिणदिशामें गमन नहीं करना । धनिष्ठा धनका नाशकारक, शतभिषक् प्राणघातक, पूर्वाभाद्रपदा नपदण्डकारक, उत्तरा भाद्रपदा कलहकारक और रेवती अग्निदाहकारक है, ये पञ्चक के पांच लक्षण जानकर उसको त्याग करना चाहिये ऐसे 'हीर' ज्योतिषी कहते है॥११८ से १२० ॥

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