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हिन्दी भाषा टीका समेतः ।
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सुकल चउत्थी दक्खणि, अट्ठमि पच्छिम इगारिसी उत्तरे । पुत्रिम पुन्वदिसे हि, हवप भद्दामुहं तिजयं ॥ २१२ ॥
भावाथ - कृष्ण पक्ष की तृतीया को अग्निकोण में, सप्तमीको नैर्ऋत कोण में, दशमी को वायव्यकोण में और चतुर्दशी को ईशानकोण में भद्रा का मुख होता है। शुक्लपक्ष की चतुर्थी को दक्षिण दिशा में, अष्टमी को पश्चिम दिशा में, एकादशी को उत्तर दिशा है, और पूर्णिमा को पूर्व दिशा में भद्रा का मुख हैं वह गमनादि में वर्जनीय है || २११ || २१२||
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कुम्भचक्र
कुम्भाकारं चक्क, कारियं रेहा तिरिच्छयं ठवियं
तसेव उद्ध अहियं, अहियं अडवीस रिसि कमलो || २१३|| पुनो अहो नाम, रितो उद्धोइ भाण रिसि ठवियं । गमणो रिसीय जत्थ य, हवए फल कहिय तत्थेव || २१४ || रितो गमण रिक्तं पुन्नो संपुम्नं हवइ लाहोयं । सव्वे जोइस मज्झे, पसंस कुम्भचक्कायं ॥ २१५
भावार्थ - कुम्भ के आकार चक्र बनाकर बिच में एक तिछ रेखा करना उसमें अश्विनी नक्षत्र से एक ऊपर दूजा नीचे, तीसरा उपर चौथा नोचे, इस मुजब अठ्याईस नक्षत्र अनुक्रम से रखना । इसमें नीचे के नक्षत्रों पूर्ण संज्ञक है और ऊपर के नक्षत्रों रिक्त संज्ञक है। गमनादि कार्य में उनके नाम सदृश फल कहना जैसे - रिक्त नक्षत्रों में गमन रिक्त व्यय) होता है। और पूर्ण नक्षत्र में पूर्ण लाभ होता है ।
यह कुम्भ-चक सब ज्योतिश्शास्त्र मध्ये प्रशंसनीय है ।। २१३ से २९५ ॥
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