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मंगलाचरण में भी मात्र 'अ' (एक स्वर) ही प्रयुक्त किया ।
'अनुष्टुभ्' छंदमें ३२ अक्षरों का ही समावेश शक्य है तथा वर्णमाला में ३३ व्यंजनों है अत: प्रथम स्तुति उपान्त्य अक्षर 'ख' पर समाप्त हो जाती थी। फिर भी ‘क्रमश: ३३ व्यंजनों का दर्शन हो सके' इस आशय को ध्यान में रखकर द्वितीय श्लोक का प्रारंभ मेरे इष्टदेव श्री कलिकुंड पार्श्वनाथ प्रभु का नामोल्लेख करके किया है जिससे ३३ व्यंजनों व्यत्यय से क्रमश: दृश्यमान हो सकते है।
मंगलाचरण का प्रथम श्लोक भी कलिकुंड पार्श्वनाथ प्रभु का विशेषण स्वरूप होते हुए भी स्वतंत्रतया श्री सामान्य जिनवर स्तुति स्वरूप भी है ।
गुरुदेव के आशीर्वाद का साक्षात् चमत्कार तो देखो - दीक्षातिथि (पंचमी) के दिन ‘मवाना' गांव में मंगलाचरण का प्रारंभ किया तो दुसरे ही (षष्ठी के) दिन हस्तिनापुर तीर्थ में शीघ्रतया समापन भी हो गया ।
विहार के साथ साथ क्रमश: स्तुति एवं वृत्ति की रचना होती रही। श्री सुपार्श्वनाथ भगवान की स्तुति रचना के पश्चात् कुछ दिनों के लिए STONE (पथरी) की वेदना के कारण रचना नहीं हुई । क्षणार्ध यह विचार भी आया कि निर्धारित समय में ग्रंथ रचना पूर्ण होगी या नहीं ? किन्तु गुरुदेव के आशीर्वाद के पूर्ण विश्वास ने यह विचार पिशाच को भगा दिया ।
दृढ निश्चय था कि प्रभु की कृपा का बल एवं पूज्यश्री की प्रेरणा का बल मेरे साथ है अत: शिखरजी यात्रा के पूर्व ग्रंथपरिसमाप्ति अवश्य हो जाएगी।
अर्ध निर्माण के बाद तो एकदम 'मूडी' जैसा हो गया | कभी-कभी दोतीन दिन में ही एक स्तुति की रचना हो जाती तो कभी-कभी एक स्तुति की रचना में छह-सात दिन भी व्यतीत हो जाते - जैसे श्री सुमतिनाथ भगवान की स्तुति का दो दिन में तो श्री धर्मनाथ भगवान की स्तुति का तीन दिन में तो श्री चन्द्रप्रभस्वामी की स्तुति का छह दिन में निर्माण हुआ।
कभी योगानुयोग जैसा भी हो गया - जैसे श्री चंद्रप्रभस्वामीजी की स्तुति प्रभुजी के ही च्यवन कल्याणक तिथि के दिन तो श्री अनन्तनाथ भगवान की
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