________________
(2) सर्वथा सम्बोधन का भी प्रयोग अशक्य है, क्युंकि उसमें “कक ! कक ! कक ! कक !” ऐसा स्वरूप होने से गुरुवर्ण के अभाव से छन्दोभंग की भी स्थिति हो सकती है अत: क्वचित् सम्बोधन के साथ प्रथमा वि. एवं द्वितीया वि. का मिश्र प्रयोग किया है (स्तुति क्रमांक-१४)।
(3-a) सर्व विशेषणों को प्रथमा वि. में भी रखना उचित नहीं है क्युंकि ऐसा करने से 'च-त-थ' आदि (अघोषवर्णों की) स्तुति में 'चच: चच:' की श्लोक रचना में “चटते सद्वितीये” (सि.है.-१-३-७) नियमानुसार 'चचश्चच:' - 'तततस्ततत:' होने से 'श्' एवं 'स्' आदि अनिष्ट वर्णों की उपस्थिति हो सकती है, तथापि 'क', 'श', 'स' (स्तुति क्रमांक ३, २३, २५) में सर्व विशेषणों केवल प्रथमा वि. में प्रयुक्त है।
(3-b) तथा घोषवान् (ग-घ-ज-द) आदि वर्गों की रचना में 'गग: गग:' होने से “घोषवति” (सि.है.-१-३-२१) नियमानुसार 'गगो गग:' होने के कारण अनिष्ट 'ओ' भी उपस्थित हो सकता है।
(4) सर्व विशेषणों का यदि द्वितीया वि. में प्रयोग होता तो द्वितीय चरण की समाप्ति में 'गगं गगम् ।' होने से अन्त्य अनिष्ट 'म्' की उपस्थिति हो जाती । विराम के कारण 'म्' का अनुस्वार भी नही हो सकता । अत: सर्व विशेषणों का द्वितीया वि. में भी प्रयोग करना शक्य नहीं है । तथापि 'म' (स्तुति क्रमांक-१८) में तो सर्व विशेषणों को द्वितीया वि. में ही प्रयुक्त किये है । हालांकि अपवादाश्रय से दोष स्वरूप नहीं है फिर भी अपवाद आचरण की भावना नहीं थी अत: निश्चित पद्धति से ही श्लोक रचना की।
(5) श्लोक रचना में 'अ' से अतिरिक्त अन्य स्वरों का प्रतिबंध होने के कारण ‘नञ्बहुव्रीहि' आदि समास करना भी शक्य नहीं है । जैसे 'कः = दक्षः, कः = क्रोध: - नास्ति को यस्य स अक: - कोऽक: अथवा कश्चासावकश्चेति काउकः = दक्षा-क्रोध:' यह नहीं हो सकता । पूर्व रचित ‘सौम्यवदनाकाव्यम्' एवं 'जिनराजस्तोत्रम्' में स्वरों का नियमन न होने के कारण ‘कोऽक:' शक्य था किन्तु यहाँ तो वैसा करने से 'ओ' अथवा 'आ' आदि अनिष्ट स्वरों की उपस्थिति हो जाती अत: पूर्वोक्त समासादि भी नहीं हो सकते ।
19