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एक दिन मन में यह विचार उपस्थित हुआ कि 'जिनेश्वरस्तोत्रम् ' के स्थान पर ‘जिनेन्द्रस्तोत्रम्’ रखुं तो ग्रन्थ के नामांकन में गुरुदेवश्री का नाम (उत्तरपद-इन्द्र) का भी अंतर्भाव हो सकता है । पूर्व में 'जिनराजस्तोत्रम्' के अन्तर्गत गुरुदेवश्री का पूर्वपद 'राज' रखा था अब उत्तरपद 'इन्द्र' को क्यों शेष रखुं ? अतः प्रस्तुत स्तोत्र का नामान्तर करके ‘जिनेन्द्रस्तोत्रम्' रखा।
शायद इस बालचेष्टा से अंशत: - यत्किंचित् अनृणी होने का प्रयास लेश किया है । गुरुदेवश्री का अनंत उपकार मेरे पर था । न केवल 'था' - 'है' भी एवं ‘होगा’ भी । यद्यपि आज गुरुदेवश्री की उपस्थिति नहीं है तथापि `गुरुदेवश्री की अनुपस्थिति की अनुभूति कभी नहीं हुई । अध्ययनादि प्रत्येक कार्यों में प्रतिक्षण पूज्यपादश्री की प्रतीति का एहसास होता रहा है । यह कहने कि नहीं किन्तु अनुभूति की चीज है अत: अधिक क्या कहूं ? |
स्तोत्र रचना में विकटता
प्रस्तुत स्तोत्र की श्लोक रचना में चतुर्थ चरण की स्वतंत्रता होते हुए भी प्रथम तीन चरणों में एक व्यंजन एवं एक स्वर का नियमन होने के कारण रचना बहुत विकटता उपस्थित हुई ।
में
(1) भगवान का नामोल्लेख प्रथमा विभक्ति, द्वितीया वि. एवं सम्बोधन से ही हो सकता है अन्यथा प्रत्येक विशेषणों में तृतीया वि. होने से 'ए' एवं 'न' की बाधा हो जाती । यदि स्वर की स्वतंत्रता हो तब तो 'न' की स्तुति में भी तृतीया वि. प्रयुक्त कर सकते किन्तु स्वर का नियमन होने के कारण 'न' की स्तुति भी पूर्वोक्त बाधा के कारण तृतीया विभक्ति युक्त नहीं कर सकते ।
तथैव चतुर्थी वि. का प्रयोग करने में 'आ' एवं 'य' से युक्त रूप होता है । 'य' की स्तुति में भी 'आ' की बाधा के कारण चतुर्थी वि. का प्रयोग शक्य नहीं है ।
पंचमी वि. में 'आ' एवं 'त' अथवा 'द', षष्ठी वि. में 'स' एवं 'य' तथा सप्तमी वि. में 'ए' की बाधा उपस्थित हो सकती है अतः सम्बोधन एवं प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति ही स्वीकरणीय रही ।
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