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जय वर्धमान
रही है। इनकी किंचित् मुस्कान ऐसी लगती है जैसे हँसी मुख के भीतर जाकर लौट रही है । महारानी ! राजकुमारी पूर्ण रूप से
हमारे कुमार के अनुरूप हैं। त्रिशला : (उठ कर) में भी ऐसा सोचती हूँ । प्रातःकाल में इस चित्र को बहुत
देर तक देखती रही। लगता था जैसे प्रभात का प्रकाश इसी चित्र से निकल रहा है । ज्ञात होता है, कलिंग के तटवर्ती सागर की तरंगों ने इसके केशों को संवारा है। इसके मस्तक की शोभा में चन्द्र भी आधा हो गया है। इसकी नासिका की रेखा क्षितिज-रेखा की भांति सुन्दरता के साथ झुकी हुई है और नेत्र ? नेत्र तो बड़े ही सुन्दर हैं, जैसे सुख और सन्तोष ही तरुण कमल की अधखुली पंखुड़ियां बन गये हैं । यह वास्तव में मेरी पुत्र-वधू बनने के योग्य है । नीचे नाम भी लिखा हुआ है । पढू ? य...शो...दा, यशोदा। कलिंग-पुत्री होकर भी समस्त शूरसेन राज्य की सुषमा समेटे हुए है।
(धीरे-धीरे कुमार वर्धमान का प्रवेश) मुनीता : कुमार की जय ! विशला : (चौंक कर देखते हुए) कुमार? आओ, आओ, तुम्हारे ही सम्बन्ध में
सोच रही थी। वर्धमान : शूरसेन राज्य की सुषमा कौन समेटे हुए है, मां ? विशला : (मुस्करा कर) तो तुमने सुन लिया? मुषमा समेटने वाली है-मेरे
वर्तमान की लता में भविष्य की कलिका, जिसमें रूप हंसता है, रंग
हँसता है और सुगन्ध बार-बार मुस्करा जाती है। वर्धमान : तुम तो कविता में बात करती हो, माँ ! स्पष्ट कहो। त्रिशला : तुमने इतनी विद्या पढ़ी है। तुम पशु-पक्षियों की भाषा भी समझ
सकते हो। कविता की मेरी भाषा नहीं समझते? देखो, मैं अपने इम