Book Title: Jay Vardhaman
Author(s): Ramkumar Varma
Publisher: Bharatiya Sahitya Prakashan

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Page 93
________________ चौथा अंक दंडाधिकारी : जो आज्ञा, स्वामी ! यशोदा : इस समय तुम्हारे बच्चे कहाँ हैं ? स्वी : (फिर सिसकियाँ लेती है) मैं अपने बच्चों को भूख से तड़पता हुआ नहीं देख सकती थी, महारानी! इसलिए आज प्रातः उन्हें एक धनी परिवार के द्वार पर छोड़ कर मैं आत्म-हत्या करने के विचार से सरोज सरोवर पर गई। यशोदा : आत्म-हत्या करने के विचार से ? म्वी : महारानी! क्षमा करें। माता का हृदय निरीह बच्चों का कप्ट सहन नहीं कर सकता। मैं आत्म-हत्या का पाप करने के लिए ही मरोवर पर गई थी, स्नान करने के लिए नहीं । वहीं मुझे यह रत्नहार मिला। मैं समझ गई कि यह राज-परिवार का ही हार है। मरने से पहले मुझ मे कोई पाप न हो, इसलिए इसे में राज-भवन में पहुंचाने के लिए ही आ रही थी कि दंडाधिकारी ने मले बन्दी बना लिया। मझे तो राज-भवन में आने का माहम ही नहीं हो रहा था तो मैंने दंडाधिकारी मे ही कहा कि यह रत्नहार राज-भवन में पहुंचा दीजिए किन्तु मेरी प्रार्थना न मुन कर उन्होंने मुझे बन्दी बना लिया । दंडाधिकारी : मभी अपराधी मन्य नहीं बोलते, श्रीमन् ! मैंने सोचा कि पकड़ लिये जाने पर ही यह अपनी मुक्ति के लिए प्रार्थना कर रही है। मान : मुक्ति के लिए प्रार्थना कर रही है ! वह जानती भी है कि मक्ति का क्या अर्थ है ? ग्बी : मं कुछ नही जानती, महागज ! (सिसकियाँ) जो चाहे मुझे दंड दं । किन्तु यह मंगभाग्य है कि मझे टम रन्नहार के कारण महागज और महारानी के दर्शन एक माथ हो रहे हैं जो मेरे जीवन में कभी मंभव नहीं था। ८६

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