Book Title: Jay Vardhaman
Author(s): Ramkumar Varma
Publisher: Bharatiya Sahitya Prakashan

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Page 118
________________ जय वर्धमान चुल्लक : मैं भी महा सन्त की जय बोलता हूँ और अपनी पत्नी की तरफ से भी जय बोलता हूँ। शलपाणि : मैं भी : ‘महा · · ‘सन्त · · ·की जय · · बोलता है। मैं तो मर गया था। मेरे ही माँप चंड कौशिक ने मझे डम लिया। यदि ये महात्मा यहाँ न होते तो मैं तो अभी तक मर गया होता । मेरे ही चैत्य में सर्पविप को दूर करने की जड़ी ! मैं उसे नहीं पहचान पाया। और इन महात्मा ने उम जड़ी को उखाड़ कर काटे हुए स्थान पर लगा दिया और मेरे शरीर से सर्प-विप दूर हो गया। हाय ! वह चंड कौशिक काट कर न जाने कहाँ चला गया। त्रुल्लक : हम लोग तो ममझे थे कि तुम मर गये । मेरी पत्नी ने कहा था कि जाकर शूलपाणि का अंतिम संस्कार कर आओ। शूलपाणि : मचमुच ही वह शलपाणि मर गया जिमने इतने बड़े मन्त का अपमान किया। यह नो उसका पुनर्जन्म है। इन्द्रगोप : धन्य हैं ये महात्मा जो मान-अपमान मे इतने पर हैं कि तुमने इनका घोर अपमान किया और इन्होंने तुम्हें जीवन-दान दिया ! शूलपाणि : धन्य धन्य हो ! महात्मा ! चुल्लक : अव धन्य धन्य कहने मे क्या होता है ! पहले नो तुमने इतने सन्न महात्माओं को मारा जिनकी गिनती नहीं है । अब धन्य धन्य कहते हो! अरे, तुम्हारा चंड कौशिक भी तुम्हारी उदंडता से ऋद्ध हो गया। वह ऐसे सन्त का अपमान नहीं सहन कर सका और उसने तुम्हें डस लिया। शूलपाणि : (खड़े होकर) अरे, अब तो मैं बिलकुल अच्छा हो गया। लगता भी नहीं है कि सांप ने मुझे काटा था। (महावीर वर्धमान के चरणों पर गिरता है।) ११४

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