Book Title: Jay Vardhaman
Author(s): Ramkumar Varma
Publisher: Bharatiya Sahitya Prakashan

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Page 74
________________ जय वर्धमान सिद्धार्थ : तुम्हारा कथन सत्य है, कुमार ! वर्धमान : नो पिता जी ! मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं इस राजमहल में ही मीमिन न रहूँ, उसके बाहर जाकर मानव-धर्म का पालन करूँ । हमारे प्रभु पार्श्वनाथ ने जिस अहिंसा का आख्यान किया है आज वह कहाँ है ? वैदिक धर्म तो प्रत्यक्ष हिंसा का धर्म वन गया है। ये अश्वमेध - गोमंध यज्ञ क्या हैं ? हिंसा के - मांस भक्षण के साधन बन गये हैं । वेद-मंत्र यज्ञकर्मियों की क्रीड़ा के कन्दुक बन गये हैं । दूर-दूर तक आकाश में उछालते हैं और झेलते हैं। उन कन्दुकों में अहंकार की वायु भरी गई है। पशु बलि करने वाले कहते हैं—वैदिकी हिंसा हिंसा नहीं है किन्तु उम हिंसा से न जाने कितने निरपराध और निरीह पशुओं के प्राणों की हानि हो रही है । यज्ञ-स्तंभ के नीचे छटपटाते हुए पशुओं का चीत्कार कितना करुण है ! मुझे लगता है कि अपनी प्राण-रक्षा के लिए वे मुझे पुकार रहे हैं । सिद्धार्थ : वास्तव में स्थिति यही है । मुझे भी लगता है कि इन यज्ञों में आमंत्रित देवता भी मांस भक्षी हो गये हैं और रक्त से ही उनकी प्यास बुझती है । जिसे ये यज्ञ कर्मी जगत्-पिता कहते हैं, वह् क्या अपने बच्चों का रक्त पीकर ही सन्तुष्ट होता है ? वर्धमान : पिता जी ! आप तो सत्य को समझते हैं । दूसरी ओर मानव समाज के बड़े अंश को अपने से अलग कर दिया है और उसे शूद्र नाम मे लांछित करते हैं । वह व्यक्ति जिसके अंग हमारे ही अंगों की भांति हैं, जिसे हमारे समान सुख-दुख, प्रेम-घृणा, उत्साह और भय का अनुभव होता है, वह हमसे किस प्रकार भिन्न है ? उसे सामान्य मामाजिक अधिकारों से भी वंचित किया गया है । वह हमारे साथ बैट नहीं सकता, उठ नहीं सकता, हम नहीं सकता, बोल नहीं सकता । यदि वह व्यक्ति जिसे वे शूद्र कहते हैं, वेद-मंत्र का उच्चारण करना है तो उसकी जीभ काट ली जाती है। उसकी छाया यदि किसी ब्राह्मण ७०

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