Book Title: Jay Vardhaman
Author(s): Ramkumar Varma
Publisher: Bharatiya Sahitya Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 113
________________ पांचवां अंक वर्धमान : मुझे कहीं किसी प्रकार का भी कष्ट नहीं है। जितने उपसर्ग होंगे, उन्हें सहन करने की क्षमता मुझ में है। इन्दगोप : किन्तु महाराज ! वह यक्ष आपके प्राण ले लेगा। वर्धमान : तो क्या हानि है ? यदि मृत्यु आयेगी तो मैं समझंगा कि मैंने अपने सिर से भार उतार दिया। (फिर अट्टहास की ध्वनि) चुल्लक महाराज ! शीघ्र ही इस चैत्य से निकल चलिए। वर्धमान नहीं, साधक ! नवीन चैत्य चित में नवीन चिनाएँ उत्पन्न करता है। मैं आज की रात यहीं निवास करूंगा। इन्द्रगोप : महात्मन् ! गत में यहाँ निवास करना मृत्यु को निमन्त्रण देना है। एक मुनि यहाँ प्राण समर्पित कर चके हैं। वर्धमान उन संत को अहंकार और अभिमान होगा। वे तीर पर खड़े होकर धर्म की गहराई को जानने का दंभ भरने होंगे। इन्दगोर महाराज ! वह यक्ष नना निष्ठुर है कि किमी दंभी और मन में भेद नहीं मानता। उममें अपार शक्ति है। वह वज्र की तरह व्यक्ति पर गिरता है। वधमान तो गिरे । जिम तरह वृक्षों में फल गिरते है, उमी भांनि गरीर टने पर मैं भी गिर जाऊँगा। (पुनः अट्टहास होता है।) इन्द्रगोप : वह आ गया ! मुझं भी मार टालेगा, महागज ! में जाता है । चल्लर. : महागज ! मुझे भी आज्ञा दें । मैं भी यहां नहीं रह सकता। वह मझे मार बिना नहीं रहेगा । फिर मेरी पत्नी क्या करेगी ! मैं अपनी पत्नी का एकमात्र पनि हैं। १०६

Loading...

Page Navigation
1 ... 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123