Book Title: Jay Vardhaman
Author(s): Ramkumar Varma
Publisher: Bharatiya Sahitya Prakashan

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Page 76
________________ जय वर्धमान वर्धमान : आपसे ऐसी ही आज्ञा चाहता हूँ। सिद्धार्थ : फिर मैं बार-बार सोचता हूँ कि उन राजाओं से क्या कहूँ जो प्रतिदिन तुम्हारे विवाह के प्रस्ताव करते हुए प्रार्थनाएँ करते हैं, उस प्रजा से क्या कहूँ जो तुम्हारे संरक्षण में अपना योग-क्षेम समझती है' उस राजलक्ष्मी के संकेतों पर क्या कहूँ जो राज-मुकुट से तुम्हारा अभिपेक करना चाहती है। और मैं अव वृद्धावस्था के क्षितिज पर डूबता जा रहा हूँ, शक्तिहीन होता जा रहा हूँ। क्या पुत्र का यह कर्तव्य नहीं है कि वह वृद्ध पिता को सहारा दे? वर्धमान : (चुप रहते हैं।) सिद्धार्थ : बोलो, चुप क्यों हो? तुम्हारे जैसा सात्विक नरेश पाकर क्या प्रजा सत्पथ पर नहीं चलेगी? क्या तुम्हारी राजनीति से राज्य के सब अनर्थ समाप्त नहीं हो जायंगे ? तुम्हारे शासन में किसको पीड़ा होगी? तुम अहिंसा को अपना राज-धर्म बना सकते हो। अपनी शक्ति से तुम शत्रुओं का दमन कर प्रजा क्या-मानव-मात्र की रक्षा कर सकते हो । संसार को सुखी बना कर तुम स्वयं सुखी हो सकते हो। वर्धमान : किन्तु तपस्या में जो सुख है, पिता जी! वह राज्य-शासन में नहीं। राज्य-शासन में वैमनस्य हो सकता है, तपस्या में सबसे मित्रता, सिंह और गाय, नकल और सर्प, विडाल और मूषक सब से समान सखाभाव, न राग से विचलित, न द्वेष से कुपित । सदैव ही चित्त में प्रमुदित । सिद्धार्थ : तपस्या तो सब साधनाओं से महान् है । और मैं कहता हूँ कि तुम अवश्य तपस्या करने जाओ और उस सुख को प्राप्त करी । भगवान् पार्श्वनाथ ने तीस वर्षों तक गृहस्थाश्रम व्यतीत किया, सत्तर वर्षों तक साध जीवन में मानव-कल्याण का सन्देश दिया और सौ वर्ष की अवस्था में सम्मेद शिखर पर तप करने के पश्चात निर्वाण-पद प्राप्त किया। ७ .

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