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जय वर्धमान
वर्धमान : चिन्ता की क्या बात है, साधक ! शरीर तो एक दिन नप्ट होगा ही । कीन जानता है कि जीवन की अवधि कितनी है । इसलिए मन को सदैव शान्त रखना चाहिए ।
चुल्लक: महाराज ! मेरा मन ही तो शान्त नहीं रहता और सब कुछ शान्त रहता है । और महाराज ! दामता से भी कष्ट होता है और स्त्री की दासता तो संसार की सबसे बड़ी दासता है ।
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वर्धमान : स्त्री में राग का केन्द्र है, साधक ! जो घर अच्छी तरह न छाया गया हो उसमें वर्षा का जल प्रवेश कर जाता है । उसी तरह जो व्यक्ति संयमशील नहीं है, उसमें राग प्रवेश कर जाता है और राग की अधिकता में ही दासता की भावना जन्म लेती है।
इन्द्रगोप : महाराज ! संसार में रहते हुए राग की अधिकता को कैसे रोका जा सकता है ?
वर्धमान : अभ्यास मे सब मम्भव है । जो समुद्र की तरह स्थित है, निम्नरंग है, वह अशान्त नहीं होता । कमल जल में ही रहता है किन्तु अपने पत्रों पर वह जल की एक बूंद मे भी लिप्त नहीं होता। इसके लिए एकान्त सेवन सुविधाजनक होता है ।
चुल्लक : महाराज ! मैं एकान्त सेवन कर ही नहीं पाता । जहाँ जाता हूँ, मेरी स्त्री मुझे घेर लेती है ।
वर्धमान : अलंकार धारण किये हुए, सुन्दर वस्त्र पहने, चन्दन चचिन नारी कामदेव का फेंका हुआ जाल है । और उम जाल में शब्द, स्पर्श, रूप, रम, गन्ध — ये पांच फन्दे हैं । उनमें कभी मत उलझो। उनमें उलझना ही नारी पर आसक्त होना है ।
चुल्लक : महाराज ! मैं नारी पर आसक्त नहीं हैं, नारी मुझ पर आसक्त है । महाराज ! मैं नहीं जानता कि मैं किस तरह व्यवहार करूँ ।
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