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जय वर्धमान
मन्दाकिनी है तब तक हमारे सुख की आकाश-गंगा को ज्योति कभी
मन्द नहीं होगी। वर्धमान : किन्तु सुख की ज्योति तो कुछ दिनों बाद मन्द हो जाती है । यशोदा : यह सुख अनेक रूप धारण करता है, प्रियतम ! जिस प्रकार आकाश
गंगा में अनेकानेक नीहारिकाएँ होती हैं और नीहारिकाओं की संख्या गिनी नहीं जा सकती, उमी प्रकार सुख के रूपों की संख्या गिनना संभव
नहीं है। वर्धमान : और हमारे विवाह में इतने उत्मवों की क्या आवश्यकता थी ? यशोदा : प्रभु ! जब मूर्योदय होता है तो पूर्व दिशा में भांति-भांति के रंगों के
वितान क्यों मुशोभित हो जाते हैं ? उषा नव वधू की भाँति क्यों सजमवर जाती है ? शीतल, मंद, मुगंध ममीर क्यों परिचारिका की भांति प्रत्येक पुष्प से आजा मांगनी है ? विहगों का ममूह एक दिशा से दूमरी दिशा में उड़ कर क्यों मंगल संदेश वितरित करता है ? मुख की लहर
में हमी के बुद्बुद् विखग्ने हैं, प्रियतम ! वर्धमान : किन्तु ये बुद्बुद् जल्दी ही फूट जाते हैं, यशोदा ! यशोदा : उनके फूटते ही नये बुद्बुद् जन्म लेते हैं, प्रभु ! और उनका यह क्रम
अनन्त काल से चलता है और चलता रहेगा। वर्धमान : किन्तु यह मुख, यह हमी क्या हमें किमी भ्रम में नहीं डाल देनी ? यशोदा : सुख तो सुख है, और हंसी भी हंसी है। ओह प्रियतम ! जब हमारे
विवाह के सम्बन्ध में पूज्य वैशाली-सम्राट् की स्वीकृति पहुँची तो सारे नगर में सुख और आनन्द की धारा महस्रमुखी होकर फूट निकली। अहा! कितना सुख, कितना आनन्द, कितनी शोभा ! घर-घर में मंगल त्यौहार ! गली-गली में कुंकुम बिखर गया ! आपकी ओर से विलम्ब देख कर हम सब तो निराश हो रहे थे। हम लोग सोचते थे
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